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बस एक झलक ही दिख पाती है अश्रु धारा में, तोड़ के वह बांध चलो तुमको भी कुछ नहला दूं और बन के एक धारा खुद को भी बहने दूं या हर बार की तरह इस बार भी रहने दूं?
(अभिव्यक्ति के अभाव में मन के भावों को प्रस्तुत करने की एक कोशिश)
सुनो, मैं कुछ कहना चाहती हूं।
निशब्द हूँ कि कैसे शब्दावली रचूं, या हर बार कि तरह इस बार भी रहने दूं?
अभिव्यक्ति मेरी कहीं तुम्हारी वेदना न बन जाएं, शब्द बनकर बाण कहीं तुम्हें न चुभ जाएं, और तुम्हारे कृदंन से मेरे अधर न रुक जाएं। इसलिए खुद को चुप ही रहने दूं, और हर बार की तरह इस बार भी रहने दूं!
सिमट के रह जाती है भाव गंगा हर बार समझदारी के बांध में, बस एक झलक ही दिख पाती है अश्रु धारा में। तोड़ के वह बांध चलो तुमको भी कुछ नहला दूं, और बनके एक धारा खुद को भी बहने दूं, या हर बार की तरह इस बार भी रहने दूं?
सुन लो अगर, जो मैं कहूं तो शायद फिर भी ना कहूं, और हर बार की तरह इस बार भी रहने दूं?
मूल चित्र : Pexels
Smithing words, in forge of thoughts. read more...
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