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जीवन और जीवाणु के जंग में कुदरत मुस्कुरा रही है…..

रात को आसमान में सितारे नज़र आ रहे हैं, दिन के समय हवा एकदम साफ हो गई है। जब कुदरत मुस्कुरा रही है तो इंसान घरों के खिड़कियों से बाहर देख पा रहा है।

रात को आसमान में सितारे नज़र आ रहे हैं, दिन के समय हवा एकदम साफ हो गई है। जब कुदरत मुस्कुरा रही है तो इंसान घरों के खिड़कियों से बाहर देख पा रहा है।

कोरोना संक्रमण के दौरान जब पूरी दुनिया की सांसे फूल रही है, मानवता संकट के मुहाने पर खड़ी नज़र आ रही है, ऎसा लग रहा है मानवता के जीवन और जीवाणु के जंग में कुदरत मुस्कुरा रहा है । इस मुस्कुराहट में शायद हमारे कल के जीवन के सूत्र छिपे हुए है, जिन पर ठहर कर  पूरी मानवता को विचार करना चाहिए। पूर्ण बंदी के दौरान कल-कारखाने, यातायात के साधन क्या बंद हुए, दो सप्ताह में ही पूरे देश की नदियां कल-कल करती हुई जल-संपन्न हो गई और पर्यावरण स्वच्छ।

रात को आसमान में सितारे नज़र आ रहे हैं, दिन के समय हवा एकदम साफ हो गई है, धूल वाले कणों से मुक्त। जब कुदरत मुस्कुरा रही  है तो इंसान घरों के अहाते या खिड़कियों से बाहर का नाज़ारा भर देख पा रहा है। पार्क तक टहलते हुए भी इस खुशनुमा महौल का मजा भी मानवता के नसीब में नहीं है।

हमारी नदियों में पानी की मात्रा पिछले दस सालों में सबसे अधिक हो गई है। बंदी के बाद दो अप्रैल तक के आकंड़े बता रहे है कि गंगा नदी में 15.8 बीसीएम पानी उपलब्ध है, जो कि नदी की कुल क्षमता का 52.6 फीसद है। पिछले साल इसी समय गंगा नदी में मात्र 8.6 बीसीएम पानी था। इसी तरह नर्मदा की क्षमता का 46.5 प्रतिशत यानी 10.4 बीसीएम पानी उपलब्ध है। कमोबेश हर नदी की सेहत में सुधार हो रहा है। जानकार बातते है कि हर नदी की अपनी स्वयं की व्यवस्था होती है जिसमें वह अपने अंदर मौजूद गंदगी को रिफाइन कर सकती है और अपना अनुपात में विस्तार कर सके। अगर यह बंदी कुछ महीने तक कायम रहा तो इसमें और अधिक सुधार की उम्मीद की जा रही है।

देश के पचासी के अधिक शहरों में वायु प्रदूषण गुणवत्ता सूचकांक बंदी के सप्ताह के दौरान सौ से नीचे चल रहा है, यानी इन शहरों में हवा अच्छी श्रेणी की है। जानकार बताते है कि जब से वायु गुणवत्ता सूचकांक बनाया जा रहा है, यह पहली बार हुआ है कि जब प्रदूषण न्यूनतम स्तर पर है।

पंजाब के लुधियाना से हिमाचल प्रदेश की पर्वतमाला की दूरी भले दौ सौ किलोमीटर हो, लेकिन आज दमकते नीले आसमान की छतरी तले उन्हें आराम से देखा जा सकता है। प्रवासी पक्षी अपने घर जाने को तैयार थे, वे अब कस्बों-गांवों की पोखरों पर कुछ और दिन रूक गए हैं। जिन नदियों में जल-जीव दिख नहीं रहे थे, उनके तटों पर मछली-कछुए खेल रहे है। आलम तो यह भी है कि कई जगहों के शांत सड़कों पर नील-गाय और हाथी भी निश्चित होकर घूम रहे है।

सबसे अधिक सकून में समुद्र है आजकल, उनका सीना चीरती हुए जहाज थमे हुए है। समुद्र का गर्भ को तहस-नहस करने वाले जहाज चुपचाप खड़ी है तो मछलियों का आकार भी बढ़ रहा है और सख्या भी। जहाजों का तेल न गिरने से अन्य जल-जीवों को सुकून मिल रहा है।

यह सच है कि बंदी के कारण देशों की अर्थव्यवस्था का पहिया थम गया है, पर बारीखी से देखें तो इससे मानवीय सभ्यता को नई सीख भी मिल रही है। वायु प्रदूषण पर नियंत्रण के साथ-साथ सड़क दुर्घटना का आकंड़ा थम गया है। विदेशों से कच्चा तेल खरीदने पर विदेशी मुद्रा के खर्च को भी राहत। हर त्रासदी अपने साथ कोई न कोई सबक लेकर आती है, इसमें कोई शक नहीं है कि कुदरत जिस तरह मुस्कुरा रही है। पूरी दुनिया को कोरोना से भी सबक लेना चाहिए। यह भी एक सबक सरीखा ही तो है तमाम दुनिया में अपने विरोधियों का खून बनाने वाले कारखाने आज मानवता को बचाने के लिए मानवता को बचाने के लिए जरूरी उपकरण बना रहे है, जिससे करोना के खिलाफ जंग लड़ी जा सकी।

कोरोना संक्रमण से पूरी दुनिया को दैनिक सामाजिक व्यवहार में बहुत कुछ सीखने का इशारा कर रही है, जिसपर सोचने की जरूरत तो है। मसलन, क्या दफ्तर का बड़ा काम घर दे नहीं हो सकता है? क्या स्कूल में बच्चों का हर रोज जाना जरूरी है? क्या समाज के बेवज़ह विचरने की आदत पर नियंत्रण नहीं किया जा सकता है? कई सवाल और प्रकृति के शुद्धिकरण के विकल्प ये दिन सुझा रहे है। कम से कम दिल्ली में प्रदूषण के पुराने अनुभवों को देखकर यह तो कहा जा सकता है कि सरकार आने वाले दिनों में लांकडाउन के दिनों से सबक ले सकती है। जरूरी नहीं इसके लिए करोडों रूपया फूक दिया जाए।

यह सही है कि धरती पर कोई भी तूफान न तो स्थायी होता है न ही अंतिम। इस बार त्रासदी ने यह बता दिया है कि मानवता की प्राथमिकता हथियार नहीं वेंटिलेटर हैं, सेना से जरूरी डाक्टर है। आम इंसान को भी घरों में बंद रहने के दौरान समझ में आ गया है कि हमारे पास जितना है, उतने की जरूरत नहीं, जरूरत है तो मानवीय संबंधों के प्रति संवेदना की।

कुदरत से हमने जो झीना-झपटा है वो लौटा तो नहीं सकते है, पर कोरोना संकट के विवशता में हमें जो कुछ कुदरत के रीबूट होने से मिल गया है उसको पुन: संतुलित करने का प्रयास तो किया ही जा सकता है। वैसे जिस तरह का मानवीय जीवन का चयन हमलोगों ने कर लिया, यह विचार चेहरे पर मुस्कान जरूर ला दे, पर इसपर अमल करना दूर की कौड़ी लाने के बराबर ही लगता है।

मूल चित्र : Pexels

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