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‘सिर्फ एक थप्पड़, पर नहीं मार सकता’ या ‘थप्पड़ से डर नहीं लगता है साहब, प्यार से लगता है’

थप्पड़ में है पुरुषवादी हिंसा के खिलाफ प्रतिरोध, जो अब तक हिंदी सिनेमा के इस रूमानी डायलाग में खो जाता था, “थप्पड़ से डर नहीं लगता है साहब, प्यार से लगता है।”

थप्पड़ में है पुरुषवादी हिंसा के खिलाफ प्रतिरोध, जो अब तक हिंदी सिनेमा के इस रूमानी डायलाग में खो जाता था, “थप्पड़ से डर नहीं लगता है साहब, प्यार से लगता है।”

पितृसत्ता के गाल पर जड़े ज़ोरदार तमाचे को समझें

‘जिस दिन महिला श्रम का हिसाब होगा मानव इतिहास की सबसे बड़ी चोरी पकड़ी जाएगी।’ यह लाइन अक्सर सोशल मीडिया पर शेयर की जाती है और लोग इसको पसंद भी बहुत करते हैं। उसी हिसाब का छोटा सा बहीखाता खोलती है अनुभव सिन्हा और तापसी पन्नू की फिल्म थप्पड़। पितृसत्ता के गाल पर जड़े ज़ोरदार तमाचे को देखना समझना है तो यह फिल्म ज़रूर देखी जानी चाहिए।

थप्पड़ को पहली हिंदी सिनेमा में बार पुर्नपरिभाषित किया गया

थप्पड़ को अब तक हिंदी सिनेमा ने बड़े ही गौरवशाली तरीके से प्रस्तुत किया है। हिंदी सिनेमा के दॄश्यों में जहां थप्पड़ के दॄश्यों को भावपूर्ण तरीके से फिल्माया गया है वहीं हिंदी सिनेमा जगत में भी कई ‘थप्पड़’ खबरों में गासिप बनकर समय-समय पर आते रहते है। पर थप्पड़ को पहली बार किसी ने महिलाओं के अस्मिता से जोड़कर इसको पुर्नपरिभाषित करके हमारे सामने रख दिया कि “हां, सिर्फ एक थप्पड़ ही है पर नहीं मार सकता।”

इस थप्पड़ में नया क्या है

थप्पड़ एक अपर मिडिल क्लास कपल की साधारण सी कहानी है। एक कहानी जिसमें पति है, पत्नी है, एक परिवार है, एक नौकरानी है, पड़ोसी हैं, दोनों पति-पत्त्नी के माता पिता, भाई बहन और दफ्तर के रिश्ते सब कुछ है फिल्म है। नया है इस कहानी में तो वह यह कि एक पुरुषवादी हिंसा के खिलाफ खड़ा किया प्रतिरोध, जो अब तक के हिंदी सिनेमा में रूमानी डायलाग में खो जाता था, “थप्पड़ से डर नहीं लगता है साहब, प्यार से लगता है।”

फ़िल्म थप्पड़ की कहानी

बहुत साधारण रूटीन लाइफ दिखाते हुए फिल्म तापसी पन्नू की बिल्कुल बोंरिग जिंदगी पर्दे पर दिखती है। सुबह अलार्म बजते ही घड़ी पर बेहद तेज रेस्पोंस टाइम से हाथ रखकर अलार्म टोन को बंद करना, जिससे बगल में सोया हुआ पति डिस्टर्ब न हो जाए। रूटीन वर्क – चाय, दूध, अखबार, नाश्ता और पति को आफिस के लिए तैयार करके भेजना और पति के घर को संभालना ही एक मात्र काम दिखाई देता है पर्दे, पर।

वास्तव में पर्दा कहना चाहता है कि हमारी दुनिया में आधी आबादी अपनी पूरी जिंदगी यही सब करते हुए बिता देने को अभिशप्त हैं। हमारी दादीयों, नानियों और मांओं ने यही बोरिंग ज़िन्दगी बिताई है।

इसी रूटीन लाइफ को जीते हुए तापसी पन्नू (मुख्य किरदार) अपने पति के एमएनसी जॉब में इंग्लैण्ड प्रमोशन को लेकर व्यस्त हो जाती है। बेहद महत्वकांक्षी प्रोजेक्ट के तहत प्रेजेंटेशन, इंटरव्यू, सेलेक्शन और पार्टी आदि होती है। पार्टी के बीच फॉरेन ऑफिस में हेड कोई और होगा की सुचना से तापसी के पतिदेव हत्थे से उखड़ जाते हैं, बॉस से उलझने लगते हैं। बीच बचाव करते हुए तापसी बीच में आती है और पति महोदय एक थप्पड़ मार देते हैं।

हमेशा एडजस्ट करती हुई लड़की को गुस्सा करने का हक़ नहीं

इस थप्पड़ से कहानी बदल जाती है। बेहद संजीदा तरीक़े से लिखी गयी फिल्म में तापसी की ओर से किसी गुस्से का प्रदर्शन तक नहीं हुआ है। एडजस्ट करती हुई लड़की को गुस्सा करना भी सिखाया नहीं जाता है। दर्द और कुढ़न में कमरे के सामान ठीक करते हुए साफ़ सफाई में वो रात बिताती है।

हैंगओवर में दूसरे दिन सुबह उठते हुए पति नौकरानी को आवाज़ देकर बुखार की दवा मांगते है और अपने परेशानी और महत्वाकांक्षा ड्रीम आदि को चोट पंहुचने की बात बताते हुए उसी बीच तापसी के आ जाने और हाथ उठ जाने की बात करते हैं।

फ़िल्म एक महिला का जीवन डायलॉग्स के ज़रिये दिखाती है

“बस एक थप्पड़ ही तो था। क्या करूं? हो गया ना।” या  “वी आर ट्रुअली इन लव और थोड़ी-बहुत मारपीट तो एक्सप्रेशंस ऑफ लव ही है ना।” और “कई बार सही करने का रिजल्ट हैप्पी नहीं होता” जैसे डायलांग से भरी हुई यह फिल्म इस तरह की लगती है जैसे हमारे सामने हर एक महिला का जीवन बीत रहा हो।

आगे की फ़िल्म में पति का घर छोड़ना, पति के ओर से लीगल नोटिस आने के क्रम में जवाब सवाल के बीच में केस आगे बढ़ता है। एक सामान्य घर में ऐसे ही होता है। पत्नी द्वारा तलाक मांगा जाना या डोमेस्टिक वॉयलेंस आदि की बात करना तो समाज के लिए अस्वीकार्य बात है। फिल्म आगे बढ़ती हुई स्त्री के अब तक जाने गए गुणों (सुशील गृहणी, कम बोलने वाली, ज़िम्मेदार, गाय, आदि) को पुनःस्थापित करती है।

स्त्रैण गुणों के आसपास बुनी गयी है एक महिला की पहचान

अजीब यह है की महिला कि होलिस्टिक ऐक्सेप्टिबिलिटी  या समग्र स्वीकार्यता, स्त्रैण केयरिंग, सर्विंग आदि गुणों के आसपास ही बुनी गयी होती है। हमारे संस्कार में महिला होने के मायने ऐसे ही बतलाए गए हैं। पुरुष को मांसल, कठोर, बहिर्मुखी, वीर होना दर्शाया गया है।

70 और 80 के दशक के फिल्मों में हीरोइन कोई सुपरमैन नहीं बल्कि, किसी घर के रहने वाले सदस्य मात्र होती थी। माँ-बाप, दोस्त-भाई, नौकर-नौकरानी आदि भी महत्व के किरदार होते थे। सबसे ज़रूरी बात कि घर और घर नाम का सामाजिक संस्थान (Social Institution) कहानी के मूल में खड़ा दिखता था। बीच में हमारी दुनिआ में पर्स्नलिटी डेवलोपमेन्ट नाम का एक पोस्ट लिबरलाइजेशन एरा का कोर्स भी आ गया और हमारे घरों के सदस्य अपनी-अपनी अलग पर्स्नालिटी, कैरियर और फ्यूचर एक्सप्लोर करने लगे।

रिश्तों के संजीदा मसलों को दर्शाती है ये फ़िल्म

हमने घरों में, रिश्तों में बात करना बंद कर दिया है। सुनना बंद कर दिया है। रिश्तों में बात करने, सुनने और स्पेश क्रिएट करनी की बात करती हुई संजीदा फ़िल्म है थप्पड़। क्योंकि पोस्ट लिबरलाइजेशन एरा का समय हमारे घरों के सदस्यों को, चाहे वह स्त्री हो या पुरुष, फ्यूचर एक्सप्लोर करने के साथ-साथ स्त्री-पुरुष समानता की भी बात करता है।

इस समानता में भले ही किसी का भी थप्पड़, भले वह पड़ा किसी को भी है, केवल हिंसा नहीं है, वह किसी के आत्मसम्मान को तार करने का सामंती प्रयास है, जिसको किसी भी तर्क से जस्टिफाई नहीं किया जा सकता है। भारतीय समाज और महिलाओं की दशा का वर्णन करती हुई इस फिल्म को हर किसी को देखना चाहिए। यह एक आदर्श प्रस्तुत करती है कि स्त्री-पुरुष का संबंध कैसा हो।

मूल चित्र : YouTube

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