कोरोना वायरस के प्रकोप में, हम औरतें कैसे, इस मुश्किल का सामना करते हुए भी, एक दूसरे का समर्थन कर सकती हैं? जानने के लिए चेक करें हमारी स्पेशल फीड!
अक्सर देखा जाता है, पुरूष कहीं से भी, किसी से भी क्रोधित होकर घर आते हैं, तो सीधा इसका गुस्सा वे अपनी पत्नी, माँ, या बहन पर दिखाते हैं।
पितृसत्ता! साधारण शब्दों में ‘पिता का शासन’ अर्थात मर्दों के शासन, तो इसमें महिलाओं का क्या स्थान हुआ? एक अबला नारी, समाज से पिछड़ी हुई एक असहाय शक्ति? हाँ! शायद हर दूसरा पुरूष यही सोचता है। मगर मैं नहीं, बिल्कुल भी नहीं, मेरा मानना है महिलाएं पुरुषों से अधिक बलशाली हैं और निष्ठावान भी।
किसी भी धर्म के चश्मे से देख लो या अपने किसी भी परिवार में, महिला चाहे वह कितनी भी ऊंचाइयों पर ही क्यों न हो, मगर पुरुष उसका नीचा दिखाने से कतराते नहीं हैं। अक्सर देखा जाता है, पुरूष कहीं से भी, किसी से भी लड़कर आते हैं या किसी से भी क्रोधित होकर घर आते हैं, सीधा इसका असर वह अपनी पत्नी, माँ, या बहन पर दिखाते हैं।
आजकल का तो चलन ही चल पड़ा है पुरूष अपनी ताकत को महिलाओं पर आज़माते हैं, और शारीरिक प्रताड़ना देते हैं, मारते हैं। यह प्राकृतिक विडंबना नहीं है और ना ही किसी धर्म में ऐसा करने के लिए मान्यता प्रदान की गई है। यह बिल्कुल प्राकृतिक के विलोम में है। यह दुर्दशा लगभग हर महिला अपने जीवन काल में ज़रूर झेलती है।
कुछ तो अपनी स्तिथि को साझा कर लेती हैं, और कुछ अपने दिल में दबा लेती हैं, मगर बहुत ही कम महिलाओं ने कभी किसी पुरुष पर हाथ उठाने की हिम्मत की होगी। और इसकी वजह वही, घर का और समाज का दूषित वातावरण। औरतों के मनोबल को कम आंकने और उनके आत्मविश्वास को बिल्कुल क्षीण करने की ज़िम्मेदारी मैं सीधे तौर पर पुरूष समाज को ही देता हूँ।
महिलायें शारीरिक प्रताड़ना क्यों झेलें? वे ‘थप्पड़’ क्यों खाएं? यही थप्पड़ अगर पुरुष के चेहरे पर रसीद किया जाए, तो कैसा महसूस होगा? मार तो मार होती है। बाल खींचना, डंडे या लाठी से मारना अत्यंत भयानक है। मगर चेहरे पर मारा गया थप्पड़?
वह थप्पड़ सिर्फ चेहरे पर ना लग कर, ना जाने आत्मा के किस कोने कोने तक को झकझोर कर रख देता है, जिसमे आत्मसम्मान निहित होता है। ऐसा लगता है ये मेरी इज़्ज़त का आख़िरी दिन था। मैं यक़ीन के साथ कह सकता हूँ, महिलाओं की मनोदशा बिल्कुल ऐसी ही होती होगी, मगर इसके उलट अगर वही थप्पड़ वह उस पुरूष के चेहरे पर मार दें तो, समाज इसको मारपीट और हिंसा का रूप दे देता है।
अनुभव सिन्हा और मृण्मयी लागू द्वारा लिखी गई कहानी, जो आज के समाज में खुद को दबा, कुचला महसूस करने वाली औरतों के लिए, एक जीवंत प्रस्तुति लेकर आयी है, जिसका शीर्षक ही ‘थप्पड़’ है। इस कहानी को दिशा देने वाली मृण्मयी लागू, जो एक महिला हैं और उनकी इस पहल ने भारत में रह रहीं सैकड़ों महिलाओं तक स्वयं द्वारा लिखी गई कहानी के ज़रिये एक कड़वी हकिकत से रूबरू करवाया।
मेरे द्वारा यह लेख लिखने का बस एक ही उद्देश्य है के कहीं न कहीं यह मूवी समाज में क्रांति लाने के लिए सबको प्रेरित करेगी और महिलाओं को एक संदेश देगी, के अपनी गरिमा के साथ कोई समझौता नहीं, चाहे कोई रिश्ता रहे या न रहे।
‘थप्पड़’ महज़ एक घरेलू हिंसा के बारे में फिल्म नहीं है। यह उन सारे तथ्यों को उजागर करती है जो एक महिला अपने परिवार और समाज लिए बलिदान देती है। यह फिल्म हर पुरुष को भी देखनी चाहिए। उसको इस कहानी से बहुत बढ़िया सीख मिलेगी। और सभी महिलाओं को भी ये फिल्म ज़रूर देखनी चाहिए, इससे उनका मनोबल बढ़ेगा।
पूरी कहानी में समाज की जीती जागती तसवीर देखी जा सकती है, एक एक क्षण सटीक और सार्थक मालूम पड़ता है। कहानी में महिला पात्र हैं और वे सभी कहीं न कहीं रूढ़िवादी परंपरा की भेंट चढ़ी हुई हैं, चाहे वह अमृता हो, या सुनीता, सुलचना, आदि।
महिला के रूप में सशक्त पात्र अमृता के अलावा नेत्रा का भी है जो वकील के किरदार में तो हैं, मगर अंदर ही अंदर एक टूटी हुई माला के बिखरे हुए मोती की तरह महसूस होती हैं। कहानी में पुरुषों की सोच कैसे महिला की छवि को धूमिल करती है बखूबी दिखाया है।
और यह सच भी है। आज कल के पुरुष महिलाओं को इसी प्रकार आंकते हैं,
“तुम कौन सी औरत हो? •कोर्ट में लड़ने वाली •घर में चिल्लाने वाली •या बाहर गाड़ी में घूमने के लिए उत्सुक?”
इसके अलावा क्या महिलाओं के कोई भी रूप नहीं हो सकते? यह भी एक सवाल इस समाज में कालेपन को और बढ़ाता है।
मैंने इस फ़िल्म का हर पहलू बहुत ही गूढ़ता से आँका और देखा के यह कहानी आज के समाज का प्रारूप है। अपने लेख में मैंने कईं संवादों को व्याखित किया है, जो महिलाओं की समस्या को समाज में उजागर करेगा।
औरतों की सबसे बड़ी समस्या है उनकी मानसिकता पर लगातार प्रहार कर-कर के सीमित कर दिया जाता है। उन्होंने जीवन में अपने पति और सास ससुर का घर संभाल लिया और सारी ज़िंदगी एक कामवाली आया के रूप में घर के सारे काम कर दिए, तो उनको लगता है उनका जीवन सम्पूर्ण हो गया। और बाकी कोई कसर रह जाती है तो वे अपने बच्चों की शादी कर के उनका घर बसा कर यह सोचती हैं जैसे उन्होंने जीवन का सबसे कठिन कार्य कर लिया। मगर इस बीच ध्यान रखने वाली बात ये है कि उसने खुद के लिए क्या किया? कुछ भी नहीं! शून्य! खाना, बच्चों की पसंद का, कपड़े पति की पसंद के, उसका खुद का अस्तित्व? वो तो मिटाया जा चुका होता है।
सही कहा। रिश्ते बनाने में न समय लगता है और न कोई श्रम, मगर रिश्तों को निभाने के लिए हमको एफर्ट्स की आवश्यकता होती है। ज़रूरी नहीं दो लोगों की सोच आपस में मेल खाती हो या साथ पसंद न हो, मगर रिश्तों को समय देना चाहिए, जिससे उसको फलने फूलने के लिए उत्तम वातावरण मिल सके।
अमृता( तापसी) द्वारा बोला गया यह कथन सटीक मालूम पड़ता है। आज कल महिलाओं को इस बात की गांठ बांध लेनी चाहिए, किसी भी पुरूष से कमिटेड होने से पहले, कि हम दोनों काम मिल-जुल का करेंगे, चाहे वह खाना पकाना हो या बाहर का कोई भी कार्य। वैसे, व्यक्तिगत तौर पर मैं भी इस बात के पक्ष में हूँ।
पूरी कहानी में महिलाओं के कई पत्रों को इंगित किया गया है, जो आज के समाज की ज़रूरत हैं। महिलाओं को कभी भी किसी के प्यार में इतना अंधा होने की ज़रूरत नहीं के उनको पीटा जा सके, थप्पड़ मारा जा सके। महिलाओं को और मज़बूत होने की ज़रूरत है। बाहर अगर वे कोम्प्रोमाईज़ नहीं करना चाहतीं, तो गलत बातों पर घर में उन्हें रोक लगाने की ज़रुरत है। पुरुष हमेशा, हर जगह एक उच्च दर्ज़ा नहीं पा सकते।
अच्छी जिंदगी और अच्छा घर ही काफी नहीं होता। जीवन में सम्मान और प्रतिष्ठा और खुशियां भी मायने रखती हैं। जहाँ सम्मान की कमी होती है, वहाँ जीवन को व्यतीत करना व्यर्थ है। कहानी का पुरूष पात्र जब खुद की स्तिथि की और गौर कर के अपने आफिस के जीवन के लिए बोलता है कि ‘जिस जगह मेरी वैल्यू नहीं मैं उस कंपनी में काम नहीं कर सकता।’ क्यों? क्यों नहीं कर सकते? जब आप अपनी पत्नी के लिए इस तथ्य को परिवार में लागू नहीं कर सकते तो आपको ऑफिस में परेशानी क्यों? कार्य तो आप कहीं भी कर सकते हैं, मगर क्या परिवार को दोबारा खड़ा कर सकते हैं? कभी नहीं।
अहिंसा परमो धर्म। यह वाक्य हर पुरुष को याद रखना चाहिए, हिंसा से कुछ भी हाथ नहीं लगने वाला और अंत में आपको सिर्फ हार और निराशा ही मिलेगी। महिलाओं को प्रेम के दायरे से बाहर नहीं रखना चाहिए, उसको सम्मान देना चाहिए, उनको आज़ादी देनी चाहिए।
सोचिये, अगर पुरूषों को परिवारों में, समाज में जो विशेष अधिकार प्राप्त हैं, तो इनको ये अधिकार देने वाले कौन हैं? और अगर उनके ये अधिकार अब सबके लिए कर दिए जाएँ तो? और आज उनको ये अधिकार देने वाले पीछे हट जाएँ तो?
यह फ़िल्म हर वर्ग के लोगों को देखनी चाहिए, हर महिला को और सीख लेनी चाहिए, खुद को इतना बुलंद कर लो के आपके सामने भी अगर ऐसी स्तिथि आए तो आप अपने खुद के क़दमों पर खड़ी हों, किसी विक्रम या राकेश के नहीं। महिलायें सीख लें अगर उन पर भी हिंसा हो तो वे भी इस स्तिथि को अमृता की तरह हैंडल करें।
आखिर हम कब तक, ‘औरत हो, औरत बन कर रहो, मर्द बनने की कोशिश मत करो’, ‘औरत हो, थोड़ा एडजस्ट करो’, ‘पति-पत्नी में ऐसा होता है’, ‘आदमी को गुस्सा आ ही जाता है’, ‘तम औरत हो तुम सब संभाल सकती हो’, ‘तुम महान हो, अपनी ताकत पहचानो’ करते रहेंगे? ताकत क्या औरतें इसलिए पहचानें ताकि वे हर शोषण का सामना हंस कर करती रहें?
ये अब सोचने वाली बात है!
मूल चित्र : YouTube
read more...
Women's Web is an open platform that publishes a diversity of views, individual posts do not necessarily represent the platform's views and opinions at all times.