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सुनो मैं भारत की बेटी बोल रही हूँ क्यूंकि अब तो मेरा ज़माना है…

किसी राजनीतिक विषय पर जब औरतें बात करती हैं तो यही कहा जाता है, "तुम्हें क्या? तुम अपना घर-बार सँभालो और अपने काम से काम रखो।"

किसी राजनीतिक विषय पर जब औरतें बात करती हैं तो यही कहा जाता है, “तुम्हें क्या? तुम अपना घर-बार सँभालो और अपने काम से काम रखो।”

पिछले कुछ दिनों से CAA के खिलाफ चल रहे आन्दोलनों से कुछ तस्वीरें सामने आयी हैं, जो उम्मीद जगाती हैं।

जी हां, मैं बात कर रही हूँ युवतियों की इन विरोध प्रदर्शनों और आंदोलनों में भागीदारी की। चाहे वो जामिया में पुलिस से अपने दोस्तों को बचाती लड़कियां हों, प्रदर्शनों में नारी लगाती हुई लड़कियां हो, बेबाकी से पत्रकारों से बात करती हुई लड़कियां हो या फिर पुलिस को फूल भेंट करती हुई लड़कियां हों। इन्होंने अपनी भागीदारी से आधी आबादी को एक मंच दिया है। वो देश, जहां हमें न जाने कितनी बार सुनना पड़ता है, “चुप रहो”, इन्होंने अपनी बुलंद आवाज़ में दुनिया को बताया है कि सुनो भारत की बेटी बोल रही है।

जब भी हम (महिलाएं/लड़कियां) ऐसे किसी राजनीतिक विषय पर बात करती हैं तो यही कहा जाता है,”तुम्हें क्या? तुम अपना घर-बार सँभालो और अपने काम से काम रखो, तुम्हें इस सब में पड़ने की ज़रूरत ही नहीं है।”

क्यों, क्या हम इस देश के नागरिक नहीं हैं? क्या सरकारें हमारे वोट के बिना बन जाती हैं? तो फिर सामाजिक, राजनीतिक विषयों पर हमें राय ज़ाहिर करने से क्यों रोका जाता है। अगर हमारा कोई दृष्टिकोण होता भी है, तो उसे दरकिनार कर दिया जाता है। क्यों हमें शुरू से चुप रहना सिखाया जाता है? और अगर कोई बोलने की सोचे भी तो उसे येन केन प्रकारेण हिदायत दी जाती है, “चुप रहो।”

सना गांगुली का उदाहरण आपके सामने है, उसकी एक ट्वीट पर सौरव गांगुली को सफाई देनी पड़ी, जबकि सौरव इस बात से वाकिफ थे कि बेटी ने कुछ गलत नहीं किया। वहीं दूसरीं तरफ न जाने कितने युवक हैं जो ट्रोल बने हुए कितने लोगों के लिए न जाने कितने अपशब्द लिखते रहते हैं। लेकिन उन्हें सुधारते हुए कभी कोई अभिभावक सामने नहीं आया।

बेटा युवा नेता बनना चाहे, तो सब खुशी-खुशी उसे आगे बढ़ाने में लग जाते हैं। वहीं बेटी अगर को ऐसी कोई महत्वाकांक्षा रखे, तो सबसे पहले लड़ाई तो अपने घर परिवार से ही लड़नी होती है।

जानते हैं देश में बलात्कार के खिलाफ अभी तक कोई सख्त कानून क्यों नहीं बन पाया?  क्यों संसद में महिलाओं को 33% आरक्षण नहीं मिल पाया? वजह है कि वहां हमारा प्रतिनिधित्व करने वाली महिलाएं बहुत कम हैं और जो हैं, उनमें से भी बहुत कम खुलकर अपनी बात रख पाती हैं।

जिस देश में इंदिरा गांधी जैसी प्रधानमंत्री हुई हैं, वहां आज भी आदि आबादी अपने हक़ की लड़ाई लड़ रही है। सशक्त महिला नेतृत्व की बात करें तो बस कुछ गिने-चुने नाम हैं। उनसे भी अगर आप पुछेंगे तो पता चलेगा कि कितने संघर्ष के बाद वहां तक पहुँची हैं।

कितना अच्छा होता गर हमें भी राजनीति और व्यवस्था में भागीदारी के समान अवसर मिलते। हमारे परिवार और हमारा समाज उसमे रोड़े अटकाने के बजाय हमारा साथ देते। अगर सिर्फ थोड़ा ही बढ़ावा मिल जाता तो मौजूदा राजनीतिक दौर में कई महिला नेता हमारे हक की लड़ाई लड़ रहीं होती।

देर से सही पर सूरत बदल रही है। क्योंकि नई पीढ़ी खुद इन बंदिशों को तोड़ कर बाहर आ रही है, अपने रास्ते खुद चुन रही है और नई मंज़िलों तक पहुँच रही है। जिस तरह से यह युवा लड़कियां इन प्रदर्शनों में बढ़-चढ़ कर भाग ले रही हैं, लगता है आने वाले कल में हमारे पास कहीं अधिक महिला नेता होंगी। वक्त तेज़ी से बदल रहा है और यह सब देखकर लगता है कि भविष्य उज्ज्वल है।

वक़्त ने करवट ली है और तूने खुद को पहचाना है..
हर मंज़िल पर तेरा परचम, हर महफ़िल तेरा फसाना है..
दिवस की कहानी पुरानी है, अब तो तेरा ज़माना है।

मूल चित्र : Canva

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