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अब प्यार और सद्भाव हो, शिवाले की घंटियां, अज़ान की रूहानियत, गुरबानी की तान हो, क्योंकि मैं ही नहीं, मेरा देश भी सजग सशक्त बने यही वक़्त की पुकार है।
अब और नहीं…अब और नहीं, क्योंकि ये भी कहा था माँ ने कि समाज हम से है हम समाज से नहीं! अब मेरा देश भी सजग सशक्त बने यही वक़्त की पुकार है।
कहा था माँ ने जब मैं पाँच साल की छोटी बच्ची थी, कहा था माँ ने…कभी झूठ ना बोलना सब अपने हैं, ना किसी से कभी मारना झगड़ना
सब कुछ ठीक होगा अगर तुम सच्चाई के पथ पर हो, कहा था माँ ने… कहा मैंने भी जब मेरी बच्ची पांच साल की थी झूठ ना बोलना, ना मारना झगड़ना किसी से,
पर क्या वाक़ई सब कुछ ठीक है?
कब तक…आखिर कब तक अपनी अंतरात्मा से ये झूठ कहूँ? कब तक अपनी बच्ची को दिलासा दूँ कि सच्चाई से सब कुछ ठीक हो जाता है?
क्योंकि सच्चाई यही है कि कहीं कुछ ठीक नहीं है, मेरे आस पास हर चेहरा सच का नक़ाब ओढ़े नज़र आता है हर बच्चा डरा-सहमा नज़र आता है,
क्योंकि ये समाज हमारी अपनी कमज़ोरियों का प्रतिबिम्ब नज़र आता है।
नहीं, अब और नहीं… अब और नहीं, क्योंकि ये भी कहा था माँ ने कि समाज हम से है हम समाज से नहीं
जब भी अकेले-कमज़ोर पड़ने लगो हाथ बढ़ाओ, कोई तो मिलेगा जो कहेगा मैं हूँ तुम्हारे साथ…तुम अकेले नहीं,
बेईमानी, झूठ, धार्मिक उन्माद, आतंकवाद के खिलाफ इस युद्ध में हम सब साथ हैं।
तो अब लबों पे नफ़रत का सैलाब नहीं प्यार और सद्भाव का सुविचार हो शिवाले की घंटियां, अज़ान की रूहानियत, गुरबानी की तान हो
नहीं, अब और नहीं… अब सिर्फ आगे बढ़ना है, हाथ में हाथ थामे, कदम से कदम मिलाये,
क्योंकि मैं ही नहीं, मेरा देश भी सजग सशक्त बने यही वक़्त की पुकार है। हाँ, अब सिर्फ यही,
सिर्फ…यही!
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