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इस बीच काफी शुभचिंतक भी मिले जिनका मानना था कि मुझे फेसबुक को समय देना चाहिए जिससे मैं नेटवर्किंग कर सकूँ, पर मुझे ना तो नेटवर्क की चाह थी ना ही ज़रूरत।
स्मार्टफोन और सोशल मीडिया का एक अच्छा प्रयोग किसे कहते हैं? इस सवाल का जवाब मैं अच्छे से दे सकती हूँ। जिस साल मेरे पास लैपटॉप नहीं था, स्मार्टफोन मेरा साथी बन गया था। चाहे आर्टिकल्स लिखना हो या रिसर्च पेपर, पीडीऍफ़ पढ़ना हो या ब्लॉग अपडेट करना हो। फेसबुक पर अपने विचार लिखने हो, इंस्टाग्राम पर फोटोग्राफी अकाउंट अपडेट करना हो या व्हाट्सएप्प पर दो पंक्ति का स्टेटस डालना, स्मार्टफोन ने खूब साथ दिया। मैं २००० शब्दों का पेपर स्मार्टफोन के गूगल डॉक्स में टाइप करती, दोस्तों को भेज फीडबैक लेती और कॉन्फरेन्सेस में जाकर पेपर प्रेजेंट करती। इस सब में स्मार्टफोन पूरा मदद कर रहा था। लैपटॉप न होने का गम नहीं था और स्मार्टफोन का एक अच्छा उपयोग करने पर गर्व था।
इस बात को ढाई साल बीत गया। मैं आज भी मानती हूँ कि स्मार्टफोन और सोशल मीडिया का एक अच्छा प्रयोग लाभकारी है। अभी से डेढ़ साल पहले मुझमें एक समझ बनी कि फेसबुक पर मैं केवल विचार लिखते रह जाती हूँ। उन्नाओ रेप केस का समय था और गुस्सा तेज़। फैसला लिया पार्लियामेंट्री स्ट्रीट जाकर आवाज़ उठानी होगी। लोगों को इकट्ठा किया, हुंकार नाम से आवाज़ उठाई और ६ घंटे के प्रदर्शन में अपनी बात रखी।
अचानक ही इस प्रदर्शन क बाद फेसबुक पर फॉलोवर्स व बात करने वालों का ताँता जुड़ गया। मीडिया के लोग बात करना चाहते थे, पत्रकार फ्रेंड्स रक्वेस्ट भेज रहे थे और लोगों ने अचानक ही मुझे एक लीडर की उपाधि दे दी। इधर मैं यह सब समझने की कोशिश कर रही थी कि मैंने सिर्फ अपना गुस्सा निकाला और लोग मुझे इतना मानने लगे। वजह थी कि लगातार अपडेट फेसबुक से जा रहा था। सवाल आया कि क्या इतना आसान है लोगों में पहचान बनाना और क्या बिना फेसबुक अपडेट के मेरा कोई कदम इतना माना जाएगा? क्या फेसबुक पर दिखाकर प्रशंसा लेना इतना आसान था कि जो लोग प्रदर्शन में नहीं आए, वो भी मुझे इतना मानने लगे थे? और यहाँ से मेरा मन बना बिना फेसबुक की ज़िन्दगी का। मैं अपने इरादों को फेसबुक अपडेट और प्रशंसा से अलग करना चाहती थी और कुछ समझना चाहती थी। प्रदर्शन क १५ दिन के अंदर फेसबुक डिलीट कर दी गई।
अगले ८ महीने शांतिप्रिय और अलग थे। मेरा रिश्ता किताबों के साथ और गहरा हो गया और साथ ही खुद को ज़्यादा समय देने लगी। खुद को सीमित किया व्हाट्सएप्प और इंस्टाग्राम तक। इस बीच काफी शुभचिंतक भी मिले जिनका मानना था कि मुझे फेसबुक को समय देना चाहिए जिससे मैं नेटवर्किंग कर सकूँ। मैं मानती हूँ कि वो मेरे लिए अच्छा सोचते होंगे पर मुझे ना तो नेटवर्क की चाह थी ना ही ज़रूरत।
लगभग १ महीने बाद मैं काफी बीमार पढ़ गई। एक बार ठीक होती और फिर बुखार चढ़ जाता। कॉलेज के दिन थे, पढ़ाई ज़ोर-शोर से चल रही थी। स्मार्टफोन भी था और अब कॉलेज से मिला लैपटॉप भी। दिन में बुखार से कराह रही थी, तेज़ बुखार था और आँखों में आंसू। डॉक्टर को दिखाया था पर हॉस्टल में अकेलापन काट रहा था। मन में बहुत से विचार आ रहे थे। सोच रही थी ऐसे वक़्त में क्या व्हाट्सएप्प के दोस्त और क्या इंस्टाग्राम के फोल्लोवेर्स, इनकी क्या महत्वता है? सोच रही थी कि ये सब भी बस मेरे हँसते फोटो और स्टेटस देखने के लिए ही हैं, इसके अलावा इनका मेरी ज़िन्दगी में क्या अर्थ? बुखार को ५ दिन हो गए था, मजबूर महसूस हो रहा था, मेरे साथ रहने वाले कुछ दोस्त मेरी मदद कर रहे थे।
ज़िन्दगी में कितने लोग सही मायने में मेरे लिए हैं – यह सोच तेज़ी से मुझे कचोट रही थी। मन बना कुछ दिन सोशल मीडिया हटाने का। देखने का कि ज़िन्दगी व्हाट्सएप्प और इंस्टाग्राम क बिना कैसी दिखेगी और उन दोस्तों और रिश्तेदारों से बातचीत कैसी होगी। मुझे अपनी दुनिया छोटी करनी थी। बार-बार के बुखार ने मुझे थका दिया था, अब।
मैं किसी को खुश नहीं करना चाहती थी स्टेटस लगा कर, ना ही कुछ दिखाना या सिद्ध करना चाहती थी। मैं खुद पर ध्यान देना चाहती थी, ज़िन्दगी को करीब से इसके असली रूप में देखना चाहती थी। उस दिन शाम मैंने व्हाट्सप्प और इंस्टाग्राम दोनों हटा दिए, सोचकर कि शायद कुछ दिन बाद शुरू करना पड़ जाए। आज उस समय को सोचती हूँ तो लगता है कि कुछ फैसले बस खुद की सुन कर लेने चाहिए। मेरी ज़िन्दगी मुझसे ये चाह रही थी, और मैंने उस आवाज़ का आदर किया।
फिर क्या था, बुखार सही होने पर स्मार्टफोन भी एक बोझ सा लगने लगा। यह सवाल खुद जन्म ले रहे थे। सवाल आया कि आज भी कितने लोग बिना स्मार्टफोन के रहते हैं – मेरी दादी, नानाजी, मेरे कॉलेज के सफाई कर्मचारी और गाँव की दीदीयां, तब मेरी ऐसी क्या आवशयकता है जो बिना स्मार्टफोन के पूरी नहीं हो सकती। बहुत सोचने पर भी मुझे जवाब नहीं मिला। बोझ का भार जैसे बढ़ता ही जा रहा था और मुझसे सब्र नहीं हो रहा था। मैंने फैसला किया कि एक महीने के लिए स्मार्टफोन हटा कर देखना सही रहेगा, पता भी चल जाएगा कि सही फैसला है या नहीं और मन की बात भी पूरी हो जाएगी। बस उसी दिन मैंने एक छोटा, सरल, काले रंग का नोकिआ का कीपैड वाला फोन खरीद लिया।
एक महीना कहां बीता पता ही नहीं चला। मुझे कहीं भी स्मार्टफोन की कमी महसूस नहीं हुई। छोटा फ़ोन हाथ में प्यारा लगने लगा। न चोरी का खौफ न टूटने की चिंता। किताबों के साथ समय बढ़ता ही जा रहा था और मेरा समय बेहतर कामों में जाने लगा था। कुछ दिन में घर से पिताजी का कॉल आया। पता चला बहन का फ़ोन टूट गया है और पिताजी ने मेरे स्मार्टफोन को भिजवाने की बात कही। मेरी ख़ुशी का ठिकाना न था। मैं अपने छोटे काले फ़ोन से खुश थी। मैंने उसी दिन वो फ़ोन कूरियर कर दिया। मुझे और हल्का, सरल और अच्छा महसूस हो रहा था।
अब बिना स्मार्टफोन और सोशल मीडिया के एक साल होने को आया है। आज मैं बीता एक साल देखूं तो मुझे अपने फैसले पर गर्व है और ख़ुशी भी। समझ आया कि स्मार्टफोन का अभाव फर्क नहीं डालता, बस ज़िन्दगी को सरलता से जीना आना चाहिए, जैसे कि ऐप्प्स पर निर्भरता न हो, पब्लिक ट्रांसपोर्ट का प्रयोग हो।
अब मैं परिवार के लोग और दोस्तों से कॉल करके बात करती हूँ ना कि ऐप्प्स पर। मेरी दादी खुश हैं। बोलती हैं अब सब उन्हें चाची के वाट्सएप्प से दिवाली-होली की बधाई देते हैं। समझती भी हैं कि अब सब ज़्यादा बिज़ी हैं इसलिए शायद फ़ोन करने का समय नहीं मिलता होगा। होली और दिवाली पर मेरी उनसे आधा से एक घंटा बात हुई, उनके गांव के बारे में, स्कूल और पढ़ाई के बारे में, अपने, उनके बारे में और पापा की बचपन की शैतानियों के बारे में।
अब दोस्तों को फ़ोन करके जन्मदिन की बधाई देती हूँ। मुझे भी ख़ुशी महसूस होती है और उन्हें भी। फर्क इतना है कि अब सिर्फ उनसे बात होती है जो सही में बात करना चाहते हैं, व्हाट्सएप्प पर हाय बोल कर गायब हो जाने वाले अब भूत काल बन चुके हैं। उन लोगों के लिए स्टैण्डर्ड मैसेज करना भी बहुत मुश्किल है, कॉल की तो मैं उम्मीद भी नहीं करती।
मुश्किल बस लगती है जब लोग दवाब बनाते हैं, स्मार्टफोन लेने का और सोशल मीडिया का प्रयोग करने का। मैं उनकी बातों का बुरा नहीं मानती, बस थोड़ा दूरी बना लेती हूँ। मैं अडिग हूँ अपनी शांति बनाये रखने के लिए। मुझे अपनी शांति ज़्यादा प्रिय है और मैं जीवन में पहले से बेहतर महसूस करती हूँ। मेरी आँखें थकती नहीं, समय पर सोती एवं जगती हूँ, अपने आसपास के वातावरण को लेकर ज़्यादा सजग हो गई हूँ। ज़िन्दगी ज़्यादा सिमटी हुई और खूबसूरत लगती है। किताब और लेखन में ज़्यादा समय जाता है। कुछ ख़ास लोगों से बातें करने में ज़्यादा आनंद आता है। समझ आया कि ईमानदारी के आत्मचिंतन की अपनी ही शोभा है। यह खुली आँखों से ध्यान लगाने जैसा है। मैं कह सकती हूँ कि मेरा जीवन शांत, सरल और सजग है, और में आगे भी खुद को बेहतर करते जाने की उम्मीद रखती हूँ।
मूल चित्र : Canva
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