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मुखौटा ओढ़े लोगों से थी जब मैं अनजान, तो खुशियां बांटते नहीं थकती थी, वाकिफ क्या हुई मैं उन चेहरों की फितरत से, अब अपनों को भी बेगाना समझती हूँ।
पूजती थी मैं जिस इंसानियत को, आज हर गली में बिकते दिखती है कभी मासूमियत थी मुझमें, अब हर दिन अपनी ही नज़र में गिरती हूँ।
एक समय था जब मैं किसी असहाय को देख कर खुद आगे बढ़ती थी और आज कोई मदद मांगे भी तो, न जाने क्यों मैं उसी से डरती हूँ।
मुखौटा ओढ़े लोगों से थी जब मैं अनजान, तो खुशियां बांटते नहीं थकती थी वाकिफ क्या हुई मैं उन चेहरों की फितरत से, अब अपनों को भी बेगाना समझती हूँ।
अचानक ये बदलाव नही आया है, धीरे धीरे मैं तुमको अपनाती थी तुम्हारी कामयाबी मुबारक हो तुमको, अब तो आईने में भी मुखौटा देखती हूँ।
मूल चित्र : Unsplash
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