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हमारे युवा नशे में डूबें, शराब-खोरी करें, ग़ैर जिम्मेदाराना रवैया अपनाएं, हीरो का अनुकरण करने वाले देश में फिल्मों का ऐसा विषय नहीं होना चाहिए।
‘बदनाम हुए तो क्या नाम ना हुआ’ के तर्ज पर 21 जून 2019 को रिलीज़ हुई फिल्म कबीर सिंह को संदीप वंगा ने लिखा और निर्देशित किया है। ये उन्हीं की तेलगु फिल्म अर्जुन रेड्डी (2017) की रिमेक है। इस फिल्म मे मुख्य भूमिका शाहिद कपूर एवं कियारा आडवाणी ने निभाई हैं, जिनके पात्र का नाम क्रमशः कबीर सिंह और प्रीती सिक्का था।
फिल्म मेडिकल कॉलेज के इर्द-गिर्द घूमती है, जिसमें सबसे ज्यादा चौंकाने वाला किरदार कियारा आडवाणी का है। दिल्ली में रहने वाली लड़की का एमबीबीएस में एडमिशन लेते समय इस हद तक सीधी होना, जैसे कोई अविकसित गांव की छोरी हो, अजीब और अविश्वसनीय लगता है। कबीर सिंह के द्वारा उसका लगातार पीछा किया जाना, बिना अनुमति चुंबन ले लेना और उसके बाद भी अभिनेत्री का कोई प्रतिक्रिया ना करना, अप्रासंगिक लगता है। ऐसा लगता है, यह अभिनेत्री आज़ादी से पहले की मूक फिल्म की अदाकारा हो। नारी सशक्तिकरण के बदले उसे वस्तु की तरह प्रस्तुत किया जाना नई पीढ़ी को गलत मार्ग दर्शन देने जैसा है। मैं इसकी कड़े शब्दों में आलोचना करती हूँ।
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p dir=”ltr”>बहर हाल फिल्म आगे बढ़ती है। कबीर सिंह के आक्रामक एवं चौका देने वाले रोल में फिट होने के लिए शाहिद कपूर ओवरएक्टिंग करते नज़र आए। वह अपने अभिनय से दर्शकों को प्रभावित नहीं कर पाए, मगर अपनी विचित्र हरकतों से युवा पीढ़ी के मन में अंकित ज़रूर हो गए। मानसिक विक्षिप्तता का बेजोड़ नमूना पेश करने के लिए नायक का किसी लड़की से संबंध बनाने हेतु दवाब, फिर उस उद्देश्य में असफल होने पर काम वेग को शांत करने भरे बाज़ार बर्फ़ का इस्तेमाल करना, फिल्म को सस्ती लोकप्रियता दिलाने का निंदनीय प्रयास है, बदकिस्मती से जो सफल रहा है। यही कारण है इस फिल्म के लगभग 270 करोड़ से ज़्यादा कमाई की है। किसी चीज़ की यदि ज़रूरत से ज़्यादा व्याख्या की जाये तो एक जिज्ञासा होना स्वभाविक है। यही इस फिल्म के साथ हुआ।
लिव इन रिलेशनशिप के द्वारा देह की ज़रूरतों को शांत करने वाले आधुनिक युवक युवती अचानक इंटरवल के बाद भारत की चिर परिचित समस्या (जात-पात और माता-पिता की रज़ामंदी, आदी) से जूझते नज़र आते हैं जो दर्शकों को पच नहीं पाता। अभिनेत्री का पात्र अति आधुनिक से बिचारी टाइप गुलाम लड़की में विलय हो जाता है, जो फिल्म के अपरिपक्व लेखन की और इशारा करता है।
पहले नायिका को इतना भी अधिकार ना देना कि वह विरोध कर सके, गुलाम की तरह व्यवहार करे, फिर नायिका और हीरो की दिखाई गयी अंतरंगता इस फिल्म की गुणवत्ता पर प्रश्न खड़ा करती है। कामीनी कौशल, सुरेश ओबेराय जैसे संजीदा कलाकारों के साथ बिल्कुल न्याय नहीं किया गया। हालांकि इन्होंने अपने दिए हुए किरदार के साथ पूरा न्याय किया।
चूंकि भारत में सिनेमा और क्रिकेट दो बेहद पसंद की पसंद किए जाने वाले विषय हैं, तो बहुत ज़रूरी हो जाता है इनका न्याय संगत होना। हमारे युवा नशे में डूबें, शराब-खोरी करें, ग़ैर जिम्मेदाराना रवैया अपनाएं, हीरो का अनुकरण करने वाले देश में फिल्मों का ऐसा विषय नहीं होना चाहिए।
और सबसे बड़ी बात यह कि अंत तक उस व्यक्ति के व्यवहार में कोई अंतर नहीं आया और फिर भी उसे विजयी हीरो की तरह प्रदर्शित किया गया। हमारे युवा अगर उसका अनुकरण करते हैं तो हमारा समाज और देश दोनों की स्थिति भयावह हो सकती है।
शराब नोशी करके एक जिम्मेदार पद में (सर्जन) ऑपरेशन करना और बीच में ही बेहोश हो जाना, बहुत ही गंभीर मुद्दे की तरफ इशारा करता है कि किस तरह हमारे व्यवस्था में कमी है। कैसे किसी घायल का एक नशेड़ी डॉक्टर इलाज कर सकता है? मरीज को कोई क्षति ना होना और अभिनेता के द्वारा कबूल कर लेना कि वह गलत था इसकी गंभीरता को कम नहीं करता। इससे चिकित्सा क्षेत्र के सम्मान को भी ठेस लगी है।
कुल मिलाकर कहा जाए तो सब की गरिमा को बनाये रखते हुए फिल्म का निर्माण किया जाना चाहिए था। फिल्म का ‘A’ सर्टीफिकेट होना उसके प्रदर्शित होने के लिए पर्याप्त नहीं है। किसी एक विशेष वर्ग को ध्यान में रखकर फिल्मों का निर्माण नहीं किया जाना चाहिए, बल्कि ज़िम्मेदार नागरिक होने का पालन करते हुए निर्देशक को बेहतर फिल्म बनानी चाहिए थी।
मूल चित्र : YouTube
क्या आज भी हमारे समाज को कबीर सिंह जैसी फिल्मों की ज़रुरत है?
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