कोरोना वायरस के प्रकोप में, हम औरतें कैसे, इस मुश्किल का सामना करते हुए भी, एक दूसरे का समर्थन कर सकती हैं?  जानने के लिए चेक करें हमारी स्पेशल फीड!

मेरे पहले एकल सफ़र ने सिखाया कि अगर हम ख़ुद के साथ हैं तो हमें किसी की भी ज़रूरत नहीं

माना ज़िंदगी तेरे इम्तिहान हज़ार हैं पर इन इम्तिहानों में भी ज़िंदगी गुलज़ार है, तू अपने इम्तिहानों का सिलसिला जारी रख, नए हौंसलों के साथ हम भी तैयार हैं। 

माना ज़िंदगी तेरे इम्तिहान हज़ार हैं पर इन इम्तिहानों में भी ज़िंदगी गुलज़ार है, तू अपने इम्तिहानों का सिलसिला जारी रख, नए हौंसलों के साथ हम भी तैयार हैं। 

मैं ख़ुश हूँ मुझे ख़ुश ही रहने दो
जीवन के पलों को जी भर के जी लेने दो
क्या पता कब आ जाए मौत का बुलावा
नदानियों से ज़िंदा मुझे आज़ाद परिंदा ही रहने दो

मेरा पहला एकल सफ़र घाटों की नगरी वाराणसी का था। भोलेनाथ में मेरी अपार श्रद्धा होने के कारण मैंने तय किया था के अपने पैरों पर खड़े होने के बाद यानि नौकरी में आने क बाद हम भोलेनाथ की नगरी काशी के दर्शन ज़रूर करने जायेंगे।

बचपन से ही शांत स्वभाव के कारण मेरे मित्र बहुत कम हैं। मुझे इस सफ़र में जाने के लिए किसी अन्य मित्र की ज़रूरत ही नहीं पड़ी, ख़ुद के साथ रहना मुझे बहुत पसंद है। पर इस सफ़र पर जब जाने का मैंने निर्णय लिया तो मुझे उम्र में पाँच वर्ष छोटा भाई मनीष जाने को तैयार हो गया।

लेकिन बात तो घरवालों को मनाने की थी। मैं बाल्यकाल से ही संयुक्त परिवार में पली बढ़ी लड़की हूँ। बाहर अकेले जाना तो दूर हम कभी अकेले रहे भी नहीं घर में। पर नौकरी में आने के बाद हमने जब अपना शहर छोड़ा तो अकेले ख़ुद के साथ जीना भी आ गया।

मेरे दादाजी पुराने ख़यालात के थे, लेकिन जैसे-जैसे वक़्त बदला उन्होंने ने भी ख़ुद को ज़माने के मुताबिक़ बदल लिया। उन्हें जैसे ही पता चला के हम वाराणसी घूमने जाना चाहते थे, तो कुछ देर शांत होने के बाद उन्होंने जाने की इजाज़त भी दे दी। मुझे इंतज़ार था तो अब अपनी दशहरे की छुट्टियों का जो कि अब आ चुकी थीं।

मैं जाने के लिए बहुत उत्सुक थी यह मेरा पहला ट्रिप था जिस पर मैं परिवार के बिना जा रही थी। अंदर से थोड़ा डर भी लग रहा था कि अनजान शहर, अनजान लोग, अनजान रास्ते, पता नहीं वहाँ के लोग कैसे होंगे? एक बार तो मन में यह ख़्याल भी आया कि कहीं मैं अकेले परिवार के बिना जाकर ग़लती तो नहीं कर रही? पर मैंने ठंडी साँस ली और ख़ुद को समझाया, ‘नहीं सब ठीक होगा कुछ भी ग़लत नहीं होगा स्वाती आगे बढ़ो।’

जाने से पूर्व हमने अपने टिकेट बुक कराए अपना ऑनलाईन होटल बुक किया। क्योंकि नवरात्रि चल रही थी और  मेरा व्रत था, ऐसे में मैंने घर से ही व्रत का पारण कर निकलना ठीक समझा। अपने ज़रूरत की चीज़ अपनी आइ डी वगैरह याद से रख लीं।

हमने अपना होटल वाराणसी रेलवे स्टेशन के पास बुक कराया जिससे कि हमें यातायात के साधन मिलना सुलभ हों। २८ सितम्बर २०१७ को रात की ट्रेन से हमारा रिज़र्वेशन हुआ जिसका समय था १० बजकर ४५ मिनट।
२८ सितम्बर २०१७ को हम रात्रि के ९.३० बजे अपने घर से चारबाग़ रेलवे स्टेशन के लिए निकले और हम समय से स्टेशन पहुँच गये। माँ ने निकलते वक़्त हमसे कहा कि ट्रेन मिलने पर हमें बता देना और सुबह पहुँच कर फोन ज़रूर करना।

हम स्टेशन पर समय से पहुँच गये थे लेकिन ये क्या था वहाँ तो अनाउनसमेंट हो रही थी कि ट्रेन अपने निर्धारित समय से ४ घंटा देर से आने वाली है। मैंने कहा, ‘ओह नो! ट्रेन लेट है।’ मुझे इंतज़ार करना बिलकुल पसंद नहीं। पर फिर भी इंतज़ार तो करना था वो भी चार घंटा!

अब इस चार घंटे को कैसे दिलचस्प बनाया जाए, ये सोच रही थी की ख़्याल आया क्यों न दोस्तों से बात कर ली जाय। मैंने अपना फोन निकाला और झट से अपना फ़ेसबुक स्टेटस अपडेट कर दिया ट्रैवलिंग टू वाराणसी।

मैंने जैसे ही स्टेटस अपडेट किया मेरे फ़ेसबुक के दोस्तों ने झट से सवालों की झड़ी लगा दी, ‘कहाँ हो तुम और कहाँ जा रही हो, किसके साथ जा रही हो’, तो किसी एक दोस्त ने कहा, ‘ओह वाह यार वाराणसी ग्रेट है। हमें बताती हम भी चलते तुम्हारे साथ।’ मैंने कहा, ‘कोई नहीं अगली ट्रिप पर।’

इस तरह दोस्तों से और भाई से बात करते करते मेरा वक़्त कट गया और ट्रेन भी अब आ चुकी थी। रात के लगभग २ बजे हम लखनऊ से वाराणसी के लिए रवाना हुए। हम ट्रेन में चढ़ते ही अपनी-अपनी सीटों पर जा कर सो गये।

दिन शुक्रवार २९ सितम्बर २०१७ को हम ११ बजे प्रातः वाराणसी पहुँच गये। हमें अपने होटल का रास्ता ठीक से नहीं मालूम था लेकिन हमने एक आटो रिक्शा किया और अपने फोन में गूगल मैप पर लोकशन डाल दी और उसकी मदद से हम आसानी से अपने होटल तक पहुँच गए। होटल में पहुँचने के बाद उन्होंने हमें अपने कमरे तक पहुँचाया। हमारे कमरे का नंबर था १११। मैंने जैसे ही नम्बर देखा मन से निकला, ‘ओह नाइस! १११ वाह क्या नम्बर है!’

हम सिर्फ़ २ दिनों के लिए वाराणसी गए थे तो हम सब कुछ प्लान कर के गये थे। पर ट्रेन के लेट होने के वजह से हमें सुबह का प्लान कैंसेल करना पड़ा। सितम्बर का महीना था और बहुत गरमी भी इतनी। गर्मी में घूमना ना बाबा ना मैंने भाई से कहा, ‘शाम को निकलते हैं।’ उसने भी कहा, ‘हाँ, ये ठीक रहेगा।’

हमने दिन का खाना खाया और आराम करने के बाद शाम को ५ बजे हम घूमने के लिए निकल पड़े। हमने निर्णय किया कि आज शाम हम बाबा विश्वनाथ के दर्शन और माँ गंगा की आरती में शामिल होंगे, क्योंकि दशहरे की छुट्टियाँ थीं तो इस कारण बहुत भीड़ थी घूमने वालों की। विदेशियों के साथ-साथ दक्षिण भारत के लोग भी माँ अन्नपूर्णा के दर्शन के लिए आए हुए थे।

हम जहाँ रुके थे वहाँ से कुछ ही दूरी पर बाबा विश्वनाथ का मंदिर था उस जगह का नाम गोदौलिया है ।हमने होटल से निकलने के बाद आटो रिक्शा किया और उसने हमें मंदिर से कुछ ही दूरी पर उतार दिया। मंदिर तक की दूरी अब हमें पैदल ही तय करनी थी। भीड़ इतनी थी कि पैर रखने की जगह भी नहीं थी पर फिर भी इतनी गुलज़ार गलियों में तंग गलियों में एक अलग ही रौनक़ थी, अलग ही ख़ुशी थी त्योहारों की।

हम सबसे पहले बाबा विश्वनाथ के समीप स्थित माँ गंगा के दर्शन करने गये। माँ गंगा के किनारे पर अस्सी घाट स्थित हैं। हम जहाँ पर गये उस घाट का नाम दशाश्वमेघ घाट है। हमने माँ गंगा को प्रणाम किया हाथ धोए और बाबा विश्वनाथ के दर्शन करने आ गए। हमने जैसे ही मंदिर की उन गलियों में प्रवेश किया मन चंदन की ख़ुशबू से महक उठा और तन को शीतलता का अनुभव हुआ।

गलियाँ जितनी तंग थी भीड़ उतनी ही अधिक थीं। जगह-जगह पर लगे सुरक्षा कर्मियों ने अनुशाशन बनाए रखा था। मंदिर में प्रवेश से पूर्व ही हमें अपने मोबाइल फ़ोन पर्स आदि जमा करना होता है। हम मंदिर में उन्हें लेकर प्रवेश नहीं कर सकते। हमने भी ऐसा ही किया, हमने सब कुछ जमा किया और प्रसाद व दूध लेकर मंदिर में प्रवेश किया।

मंदिर में प्रवेश के वक़्त भीड़ इतनी थी कि मुझे यह मालूम ही न चला कि मैंने दूध का ग्लास बाँए हाथ में ले रखा है और उसी हाथ से हमने भोलेनाथ पर दूध अर्पण भी कर दिया। लेकिन तभी किसी ने पीछे से हमें आवाज़ दी, ‘अरे ये क्या कर रही हो उलटे हाथ से नहीं, सीधे हाथ से चढ़ाओ।’ पर अब तो हम चढ़ा चुके थे,  मन ने निराश हो कर कहा पर तभी किसी ने इस बात का खंडन करते हुए कहा, ‘नहीं नहीं ऐसा कुछ भी नहीं। ईश्वर भाव का भूखा होता है पाखंड का नहीं।’

मेरा मन यह सुनकर शांत हो गया और हम वहाँ से निकलकर माँ अन्नपूर्णा के दर्शन के लिए उन के प्रांगण में आ गए जो कि उसी मंदिर में है। यहाँ दक्षिण भारतीय दर्शन के लिए सर्वाधिक आते हैं। दोनों मंदिर के दर्शन के पश्चात हम लोग माँ गंगा के पास आ गये। आरती में वक़्त होने के कारण हमने सभी घाटों को देखने का फ़ैसला किया और नाव वाले को तैयार किया।

हम दशाश्वमेघ घाट से सभी अस्सी घाटों को देखने के लिए चल पड़े। हम सभी घाटों का दर्शन करते जा रहे थे उन घाटों में से एक घाट पड़ा मणिकर्णिका घाट। नाव वाले ने हमें बताया कि इस घाट पर दाह संस्कार होते हैं और यहाँ की अग्नि कभी बुझती नहीं २४ घंटे जलती रहती है। हमने देखा भी के शाम हो चुकी थी कुछ दाह संस्कार हो चुके थे और कुछ अपने प्रियजन के दाह संस्कार के लिए क़तार में खड़े हो कर प्रतीक्षा कर रहे थे। हमने आँख बंद कर हाथ जोड़कर उन सभी की आत्मा शांति की प्रार्थना ईश्वर से की। तभी मानों मन में एक ख़्याल सा आया –

आना है जाना है पल भर का न ठिकाना है।
जाने किस ख़ुदगर्ज़ी में खोया आज ज़माना है।।

उस के बाद अस्सी घाट के बारे में उसने हमें बताया कि यहाँ स्नान आप अस्सी घाट पर ही कर सकते थे पर  बाक़ी यहाँ के घाटों का गंगा जल पूजा के लिए प्रयोग नहीं होता क्योंकि अस्थियों का विसर्जन होता है काशी में। इस के बाद हम सभी घाटों का दर्शन करते हुए वापस दशाश्वमेघ घाट पर पहुँचे। अब गंगा आरती का समय हो चुका था।

गंगा आरती के समय कोई भी नाविक नाव रोककर गंगा आरती में सम्मिलित होता है उसके बाद ही वो यात्रियों को घाटों के दर्शन कराता है। माँ गंगा की आरती शंख, डमरु, ढोल आदि के साथ प्रारम्भ हुई, एक दिव्य एहसास समाए हुए। साथ तांडव स्त्रोत भोलेनाथ की आरती ने मानों पूरे वातावरण को पवित्र कर दिया हो।

अंत में एक दिव्यता का अनुभव हुआ जब सभी माँ गंगा के विश्राम की प्रार्थना कर रहे थे। सितम्बर की गर्मी में जहाँ एक पत्ता भी हवा से नहीं हिल रहा था उन्होंने मानों एक ठंडी हवा के झोंके साथ ये एहसास कराया कि वो हमारे बीच ही हैं, हम सब के साथ। मैं इस अलौकिक अनुभव को शब्दों में बयाँ नहीं कर सकती।

आरती के ख़त्म होने के साथ साथ हज़ारों की संख्या में मौजूद दर्शनार्थी वापस अपने घरों की ओर बढ़े। भीड़ बहुत अधिक थी हमने कुछ दूरी पैदल ही तय की रास्ते में पड़ती गयी सिल्क के कपड़ों की दुकानों और बनारसी पान खा कर लुत्फ़ लिया। कुछ दूर चलने के बाद हमें आटो रिक्शा मिला जिसने हमें वापस हमारे होटल तक पहुंचा दिया।

हमने रात का खाना खाया और सुबह की प्लानिंग की। अगली सुबह हमारा प्लान बाबा काल भैरव के दर्शन और गंगा के घाट अस्सी घाट पर स्नान का था साथ ही वाराणसी की सुप्रसिद्ध सुबह यानि सूर्योदय के दर्शन का था।

दिन शनिवार ३० सितम्बर २०१७ को हम सुबह ४ बजे स्नान के लिए अस्सी घाट के लिए निकले। वहाँ पहुँच कर हमने देखा कि वहाँ बहुत कम लोग मौजूद थे। उनमें से कुछ विदेशी थे, कुछ चित्रकार थे, एक चाय वाला था और कुछ दोस्तों का ग्रूप था। चित्रकार गंगा के किनारे बैठ कर वहाँ के दृश्य को अपने काग़ज़ पर उतार रहा था।

वहाँ महिलायें न के बराबर मौजूद थीं। थोड़ा घबराहट हुई पर सभी अपनी धुन में मस्त थे। कोई गाँजे के नशे में, कोई भोलेनाथ की भक्ति की मस्ती में। हमने स्नान के स्थान पर हाथ-पैर धोये और माँ गंगा को प्रणाम किया, पर भाई ने स्नान किया। हम बैठ कर घंटों तक घाट के किनारे सुकून को महसूस करते रहे। वहाँ वो सुकून और शांति थी जो कही भी नहीं थी। घाट के किनारे बैठकर सूर्य को उदित होते देख मन प्रसन्न करने वाला दृश्य था जो हमें रोज़ देखने को नहीं मिलता। हमने उस दृश्य को अपने आँखों में सदा के लिए भर लिया। हम लोगों ने उस दृश्य का आनंद चाय के साथ लिया और एक बार पुनः बाबा विश्वनाथ के दर्शन कर बाबा काल भैरव के दर्शन को निकल गए।

बाबा काल भैरव को वाराणसी का कोतवाल भी कहा जाता है। माना जाता है कि कोई भी अधिकारी अपना पद तब तक ग्रहण नहीं करता जब तक वह बाबा कोतवाल यानि काल भैरव के दर्शन नहीं कर लेता। काल भैरव के दर्शन मात्र से अनिष्ट कट जाते हैं ऐसा लोग मानते हैं। और यह भी कहा जाता है कि इनके दर्शन के बिना आपकी काशी यात्रा कभी पूरी नहीं मानी जाती।

हमने दर्शन किए और प्रसाद आदि लेकर बाहर आ गए। एक अलग ही ऊर्जा और सकारात्मकता का अनुभव हमने अपने अंदर किया। हमने मंदिर से बाहर आकर कचौडियों और जलेबियों का आनंद लिया। आज दिन की ट्रेन से हमें वापस अपने शहर निकलना था।

दर्शन इत्यादि करने के पश्चात हम वापस अपने होटल आ गए और आराम करने के बाद दिन का खाना खाने चले गए। आज दिन के खाने में होटल के स्टाफ़ की तरफ़ से हमारे लिए एक कोमपलिमेंट्री ड्रिंक सर्व की गयी हमारे बिल के आग्रह पर उन्होंने हमसे कहा, ‘मैम ये हमारी तरफ़ से है, आप के लिए।’ अपने प्रति प्यार और सम्मान देखकर मन बहुत ख़ुश हुआ मानों यह तय कर लिया हो उसी वक़्त के हम फिर से एक बार ज़रूर आएँगे।

आज हमारी ट्रेन शाम ४ बजे की थी और समय से थी हमने होटल से चेक आऊट किया और स्टेशन आ गाए और रात ११ बजे हम अपने शहर सकुशल पहुँच गये।

मेरी वाराणसी यात्रा बहुत ही सुखद रही । मेरा यह सफ़र दिव्यता सकारात्मकता आनंद से परिपूर्ण था। इस यात्रा ने मुझे हौंसला भी दिया कि जीवन में ऐसा कुछ भी नहीं जो हम नहीं कर सकते। अगर हम अपने साथ हैं तो हमें किसी की भी ज़रूरत नहीं ख़ुद के साथ होने के लिए।

माना कि ज़िंदगी तेरे इम्तिहान हज़ार हैं
पर इन इम्तिहानों में भी ज़िंदगी गुलज़ार है
तू अपने इम्तिहानों का सिलसिला जारी रख
के नए हौंसलों के साथ अब हम भी तैयार हैं।

मूल चित्र : By © Jorge Royan / http://www.royan.com.ar, CC BY-SA 3.0, Link

कुछ दिन पहले विमेंस वेब ने अपने पाठकों से ‘मैं भी मुसाफिर-मेरा पहला एकल सफ़र’पर आधारित कुछ निजी अनुभव एक लेख के रूप में साझा करने को कहा था, स्वाति कनौजिया जी का ये लेख इस श्रृंख्ला से चुना हुआ लेख है।  

विमेन्सवेब एक खुला मंच है, जो विविध विचारों को प्रकाशित करता है। इस लेख में प्रकट किये गए विचार लेखक के व्यक्तिगत विचार हैं जो ज़रुरी नहीं की इस मंच की सोच को प्रतिबिम्बित करते हो।यदि आपके संपूरक या भिन्न विचार हों  तो आप भी विमेन्स वेब के लिए लिख सकते हैं।

About the Author

Swati Kanojia

Dreamer , creative , luv colours of life , Teacher , love adventure, singer , Dancer , P☺️ read more...

9 Posts | 22,688 Views
All Categories