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आस्था और तर्क के बीच ताल-मेल बनाए रखना कितना ज़रूरी है?

निराहार से दादी की तबियत गड़बड़ होने लगी, पर बिना कलश स्थापना किए खाने को तैयार ही नहीं थीं इससे घर के सभी सदस्य परेशान होने लगे।

निराहार से दादी की तबियत गड़बड़ होने लगी, पर बिना कलश स्थापना किए खाने को तैयार ही नहीं थीं इससे घर के सभी सदस्य परेशान होने लगे।

चार दिनों से लगातार मूसलाधार बारिश के कारण जन जीवन एकदम अस्त-व्यस्त हो गया था और आज नवरात्रि का प्रथम दिन था। मनु की दादी तथा माँ दोनों ही उस दिन व्रत रखती हैं और पंडित जी के द्वारा कलश स्थापना का अनुष्ठान सम्पन्न होने पर ही फलाहारी भोजन ग्रहण करती हैं। यह सिलसिला वर्षों से चला आ रहा था।

पर इस साल जगह-जगह जल-जमाव व बारिश के कारण उनके पंडित जी को बहुत सारी मुश्किलों का सामना करना पड़ रहा था। रात के आठ बज रहे थे और पंडित जी नदारद।

निराहार से दादी की तबियत गड़बड़ होने लगी, पर बिना कलश स्थापना किए खाने को तैयार ही नहीं थीं। घर के सभी सदस्य परेशान होने लगे। दस वर्षीय मनु भी अपनी दादी की हालत देखकर चिन्तित होने लगा।

वह आकर दादी से बोला, “दादी! पंडित जी नहीं आ पाएंगे तो आप कब तक भूखी रहेगी? ये तो माँ दुर्गा को भी अच्छा नहीं लगेगा। और मुझे भी।”

दादी आश्चर्य से भर उठीं, इस तरह से तो उनकी माँ उनसे कहती थीं । इससे पहले वह कुछ कहतीं, वह बोल पड़ा, “चलिए! मैं माँ की तस्वीर के आगे धूपबत्ती व घंटी बजा कर माँ का आह्वान करता हूँ।”

दादी की आँखें भर आईं। और वह उठकर उसके साथ चल दीं, बुदबुदाते हुए , “माँ का तो आह्वान हो गया।”

मूल चित्र : Pexels

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