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कभी लगाव था पर आज सिर्फ एक गहना, साफ़ हो सकती है ये परत लेकिन, फिर आएगी जब जब आवाज़ उठाएगी, क्या मूक मुर्दा बन ज़िंदा रह पायेगी?
‘अरे उसे नहीं छूना!’ मैं अक्सर टोकती जब कोई मेरी चांदी की अंगूठी को सफाई के दौरान हिलाया करता ये वो पहली निशानी है जिसने मुझे इस बंधन में बाँधा था और मैंने भी एक नयी ‘मैं’ को स्वीकारा था धीरे-धीरे इस चांदी की चमक खूब भाने लगी मैं भी उस सुरूर में खुद को सजाने लगी
पर कहाँ हर मौसम एक सा रहता है जो सावन में भीगे वो पतझड़ भी सहता है उसकी आँखें मेरी कमियाँ देखने लगीं नहीं भाता मेरा कुछ उसको, मुरझाई सी मैं भी रहने लगी चांदी की अंगूठी पर एक परत जम रही थी अनचाही, कारी और मटमैली सी अब वो लग रही थी
एक घुटन सी उस अंगूठी में लगने लगी निशाँ वो मेरे हाथ पर उसके हाथों का छोड़ने लगी चुभती थी वो बहुत उसकी उँगलियों के तले मांग रही थी ज़िंदगी से नए सिरे मुश्किल है बहुत इस घुटन से आज़ाद होना तोड़ दिए हैं इस ‘आज़ादी’ ने घर हरे भरे पर ये ज़िद करे बैठी है इस काली परत के साथ नहीं रहना
कभी लगाव था पर आज सिर्फ एक गहना साफ़ हो सकती है ये परत लेकिन फिर आएगी जब जब आवाज़ उठाएगी क्या मूक मुर्दा बन जिंदा रह पायेगी? उस चांदी की अंगूठी को निकाल फेंकना जो कभी ये अस्मत और स्वाभिमान पर आ जाये निशाँ ये हाथ पर नहीं ज़मीर पर कर जायेगी फैसला तुम्हारा, पल पल मरना या जी जाना!
मेरी ये छोटी सी कविता उन सभी औरतों के लिए है जो कभी ना कभी किसी शोषण का शिकार हुई हैं। कभी दफ्तर में,कभी घर में, कभी पति से, कभी दोस्त और कभी किसी अनजान से, किसी ना किसी रूप में परेशां होती आई हैं। समझदारी और सहनशक्ति के नाम पर चुप रहती आई हैं। ‘औरत ही घर को संभाल सकती है’ के नाम पर खुद की हर ख्वाहिश को पैरों तले दबाती आई हैं। अपने ही घर में अपनी अस्मत खोती आई हैं। उम्र के हर पड़ाव पर अपनी इच्छाओं को मारती आई हैं।
कोई चांदी की अंगूठी हमारी आज़ादी को ना बाँधने पाए, कभी ना मिटने वाला कोई निशाँ ना छोड़ने पाए!सच है ना?
मूलचित्र : Pexels
Now a days ..Vihaan's Mum...Wanderer at heart,extremely unstable in thoughts,readholic; which
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