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सरदारी बेगम : आत्मीय रिश्तों का बहिखाता दर्शाती श्याम बेनेगल की एक उम्दा फ़िल्म

सरदारी बेगम : रिश्तों का बहिखाता! एक बेहद उम्दा और आत्मीय रिश्तों को झलकाती यह फ़िल्म, कई स्तरों पे दिल को छूते हुए रूह में समा जाती है।

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सरदारी बेगम : रिश्तों का बहिखाता! एक बेहद उम्दा और आत्मीय रिश्तों को झलकाती यह फ़िल्म, कई स्तरों पे दिल को छूते हुए रूह में समा जाती है। 

१९९६ में पहली बार प्रदर्शित हुयी सरदारी बेगम, मैंने लगभग २१ साल पहले देखी थी। उस समय यह मुझे काफ़ी ‘समय से आगे’ और उत्तेजनीय, ‘न्यू एज सिनमा’ के ख़िताब को दर्शाती हुई फ़िल्म लगी। अचंभा इस बात का है कि आज, २१ साल बाद भी इसके चरित्र, उनकी आकांशाएँ और दृष्टिकोण उतने ही उन्नत और बाग़ी जान पड़ते हैं। क्या यह हमारे ठहरे हुए समय और ख़्यालात को दर्शाता है? या, यह श्याम बेनेगल और ख़ालिद मोहम्मद के उस ‘मास्टरपीस’ को हमसे अवगत करता है जो हर पीढ़ी को कुछ नया सिखा सकती है क्योंकि इसके जज़्बात अभी भी उतने ही मायने रखते हैं और समाज अभी भी इनसे बहुत परे है!

एक स्वतंत्र ख़्याल

सरदारी बेगम एक ऐसी औरत की कहानी है जो संगीत को महत्व देने के लिए अपने कई उसूलों और रिश्तों से खेलती ज़रूर है, मगर दिल से बेबाक और ख़्वाहिशों से प्रेरित है। इस प्रकार का किरदार हिंदी फ़िल्मों में बहुत कम दर्शाया जाता है। सरदारी(किरण खेर) का अपने पिता और भाई से जो रिश्ता है वो संगीत, प्यार और आदर की जद्दोजहद में पिसता है। मगर हमेशा संगीत की जीत इस किरदार को एक बहुत ही शौक़ीन और प्रेरित अन्दाज़ में कामयाब करती है!

इस प्रकार की लगन और आत्मविश्वास को दर्शाना एक बहुत ही स्वतंत्र ख़्याल है जो आज भी बहुत नकारा जाता है। सरदारी अपने संगीत और उसके प्रचार और विकास के लिए हेमराज(अमरीश पुरी) के जुनून और सादिक़ (रजित कपूर) की आसक्ति को अपना शस्त्र बनाते हुए अपने संगीत को बढ़ावा देती है। लेकिन, जब सादिक़ उसके संगीत को बिकाऊ तौर पर इस्तेमाल करने लगता है तब एक बार फिर उसके संगीत के प्रति जो शुद्ध लगाव है, उसे सादिक़ को छोड़ने के लिए उकसाता है।

सराहनीय चरित्र मिश्रण

फ़िल्म यह पहलू दर्शाने में सफल है कि सरदारी के चाहने वाले सिर्फ उसके संगीत के ही नहीं, बल्कि उसकी अदाओं और ख़ूबसूरती के भी क़ायल होते हुए भी, उसके एक हद तक ही करीब जा पाते हैं। हेमराज के बढ़ते हुए जुनून को सरदारी एक हद तक झेलने के पश्चात, अपने फ़ायदे के लिए सादिक़ का साथ अपनाती है। उस ज़माने में औरत को मिलने और उसे यूँ अपनाने को बख़ूबी दर्शाया गया है। यह हमें सरदारी की तरफ़ आलोचनात्मक ना होते हुए, उसके प्रति दया नहीं बल्कि सहानुभूति महसूस करने के लिए प्रेरित करता है। इस तरह का चरित्र मिश्रण सराहनीय है और इसको बख़ूबी अपनाया है किरण खेर और स्मृति मिश्रा ने।

इस प्रकार का आत्मविश्वास और दृढ़ निश्चयी चरित्र आपको यह सोचने पे मजबूर करता है कि यह सही है या नहीं? मगर सरदारी एक ऐसी पहेली है जो अपने हर निश्चय को अपने ज़रिए से देखते और दिखाते हुए उसे अपना लेती है।

बहुत ही कठोर पहलू

यूँ तो माँ-बेटी का रिश्ता हर परिस्तिथि में नाज़ुक होता है। मगर एक माँ का सबसे महत्वपूर्ण मक़सद होता है अपनी बेटी का सुख और उसे एक क़ाबिल जीवन साथी के साथ बसाने का(ख़ासकर उस दशक में)। सरदारी बेझिझक अपनी बेटी को इन सब मसलों से दूर रख, संगीत में समाने को ही अपना एक मक़सद बना उसकी ज़िंदगी के माध्यम से अपने नाम और अपनी कला को जीवित रखना चाहती है। सकीना( रजेश्वरी सचदेव), उसकी बेटी इतनी प्रतिभाशाली ना होते हुए भी, अपनी माँ की ज़िद को क़ायम रखती है और अपनी इच्छाओं को परे रख इसे अपनाती है।

सरदारी का अपनी बेटी के साथ जो एक तरफ़ भावुक रिश्ता है, वहीं दूसरी तरफ़ काफ़ी पेशेदार भी। संगीत यहाँ भी सरदारी को मजबूर करता है और वह अपनी बेटी की भावनाओं को कुचल, उसे संगीत में धकेलने और बढ़ावा देने से संकोच नहीं करती। यह एक बहुत ही दिलचस्प नज़रिया है, जहाँ वह अपने संगीत और नाम को आगे बढ़ाने की ख़्वाहिश अपनी बेटी के जज़्बातों से खेल कर पूरा करना चाहती है।

यह एक बहुत ही कठोर पहलू है सरदारी के जीवन का। और इसे इस फ़िल्म के अंत तक अनसुलझे हुए मक़ाम पर ही छोड़ा गया है, जिस तरह से कुछ चीज़ें ज़िंदगी में क़िस्मत पे ही निर्भर होती हैं। सही है कि नहीं? यह सरदारी आप से ना पूछ रही है ना जानना चाहती है। सिर्फ़ अंतिम दृश्य में वह अपनी बेटी से एक आश्वासन चाहती है कि शायद वह उसे समझ पायी हो!

आत्मविश्वास और दृढ़ निश्चयी चरित्र

इस प्रकार का आत्मविश्वास और दृढ़ निश्चयी चरित्र आपको यह सोचने पे मजबूर करता है कि क्या सही है, क्या  गलत? मगर सरदारी एक ऐसी पहेली है जो अपने हर निश्चय को अपने ज़रिए से देखते और दिखाते हुए उसे अपना लेती है।

ऐसे किरदार बहुत मुश्किल से और कुछ ही चुनिंदा फ़िल्मों में दिखने को मिलते हैं। ‘सरदारी बेगम’ और ‘भूमिका’ श्याम बेनेगल की दो फ़िल्में हैं जो इस जटिल वर्णन को दर्शाने में कामयाब हुई हैं और इसी कारण यह काल-निरपेक्ष फिल्म साबित हुईं।

संगीत का जो महत्व इस फ़िल्म में है, वो बहुत ही सुंदर तरह से इसके ठुमरी और ग़ज़ल से प्रेरित गानों में निखर के आता है ।आरती अंकलिकार की मंझी हुई आवाज़ सरदारी के हुनर को बख़ूबी दर्शाती है।

मैं आप सब से यह फ़रमाइश रखता हूँ की आप इसे देखें और अगली पीढ़ी को दिखाएँ।

यह फिल्म आजकल अमेज़न प्राइम पर भी उपलब्ध है।

मूल चित्र : Google /YouTube 

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Manish Saksena

A fashion and lifestyle specialist for the last quarter of a century with various brands e commerce and CSR initiatives. A keen enthusiast of Sarees , social developments and films and art . read more...

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