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बहा ले जाएँगी एक दिन मुझे, मन की कश्तियाँ अपने संग!

लहरों में कश्तियाँ भी होती हैं कुछ, जिन पर निकल जाती हूँ मन ही मन, फिर मेरा लौटना ज़रूरी हो जाता है, व्यवस्थाओं को सींचने शायद!

लहरों में कश्तियाँ भी होती हैं कुछ, जिन पर निकल जाती हूँ मन ही मन, फिर मेरा लौटना ज़रूरी हो जाता है, व्यवस्थाओं को सींचने शायद!

तुझसे क्या चाहती हूँ मैं?
रोज़ एक खामोश सुबह की
देहलीज़ पर बैठी
ताकती हूँ तुझे, मेरी ज़िंदगी।
और
लहरें गिनती हूँ सवालों की।

लहरों में कश्तियाँ भी होती हैं कुछ,
जिन पर निकल जाती हूँ मन ही मन।
सफ़र कुछ देर, कुछ दूर तक का।
किसी अनजान दिशा
और अनछुई सीमाओं का।

फिर मेरा लौटना ज़रूरी हो जाता है
बदन पर उगे पौधों के लिए।
व्यवस्थाओं को सींचने या शायद
अपनी ही बनायी आदतों के लिए।

लेकिन लौट कर भी रोज़
सुबह के आंगन में मैंने,
खुद को पिंजरे की सरहद पर
उड़ने को बेताब पाया है।
जैसे पाया है धूप सा बेबाक
खिलते खुलते कईं सपनों को।

उनके संग अब रोज़ लहरों में
निकलती हैं मेरी कश्तियाँ।
पता है वे ज़रूर मुझे
बहा ले जाएँगी समंदर तक
एकदिन।

मूलचित्र : Pixabay 

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Suchetana Mukhopadhyay

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