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कड़वा सच – क्या स्त्री के सुंदर ना होने से उसके गुणों का कोई मोल नहीं?

क्या स्त्री का गुण पर्याप्त नहीं होता। उससे क्यों अपेक्षा रखी जाती है कि सुन्दरता ही उसका मूलभूत गुण है? सुंदर ना होने से उसके गुणों का कोई मोल नहीं?

क्या स्त्री का गुण पर्याप्त नहीं होता। उससे क्यों अपेक्षा रखी जाती है कि सुन्दरता ही उसका मूलभूत गुण है? सुंदर ना होने से उसके गुणों का कोई मोल नहीं?

रमा जो पेशे से वकील है, रविवार की एक दोपहर को बोर हो रही थी तो यूँ ही टी.वी चालू कर लिया। कुछ ढंग का मिले, ये सोच चैनल बदल रही थी, पर हर चैनल औरत पर स्त्रियों के शरीर की नुमाईश ही नुमाईश। उसने टी.वी बंद कर दिया।

आज उसका और कुछ अन्य कामयाब स्त्रियों का इंटरव्यू था। वह बुझे मन से तैयार हुई, और सखी-सहेली नाम के मंच पर पहुँची। अपनी बात करते हुए उसने नारी को पूर्ण रूप से स्वतंत्र होने की सलाह दी। ख़ुद की इज़्ज़त करने की सलाह देते हुए समझाया कि पुराने ज़माने में स्त्रियों को शिक्षा नहीं दी जाती थी, उनको बराबरी का अधिकार नहीं था। पुरुष प्रधान समाज था, सारे नियम पुरुष ही बनाते थे, स्त्रियों को केवल घर में रखा जाता था और क्योंकि वे शिक्षित नहीं थीं, तो उन्हें अपने अधिकारों की जानकारी भी नहीं थी। उनके लिए नियम बना दिया गया था कि सिर्फ चूल्हा-चौका संभालना है। पुरुष प्रधान समाज में स्त्रियाँ उपभोग की वस्तु से ज़्यादा कुछ नहीं थीं, इसके तहत स्त्रियों को कहा जाता था कि वे ज़्यादा सजे-सँवरें अपने आप को निखारें ताकि उन्हें स्वीकार कर लिया जाए। विवाह में उन्हें इस तरीके से प्रदर्शित किया जाता था, जैसे वे कोई जानवर या वस्तु हों। खूब सारा मेकअप, आकर्षक परिधान, पाजेब, बिछिया, जेवर, यह सब से उसे लादकर रखा जाता था।

आने वाले समय में घूँघट प्रथा तो खत्म हो गई, जेवर भी अपेक्षाकृत कम पहने जाते हैं, मगर अफ़सोस अपने आप को प्रदर्शित करने की भावना स्त्री के अंतर्मन में बैठ गई। वह आज भी हर संभव प्रयास करती है कि वह ज़्यादा से ज़्यादा सुंदर दिख सके। इस होड़ में वह आपस में ही ईर्ष्या की भावना रखती है। अपने परिधानों के प्रति, अपने ‘लुक’ के प्रति बहुत ही सजग रहती है। यह कहा जाए कि वह तनाव में रहती है कि वह कैसी दिख रही है तो यह भी गलत नहीं होगा।

हमने जब से जन्म लिया है, हमेशा देखा कि स्त्री बहुत सजती संवरती है, अपने रूप का श्रृंगार करती है, हमेशा बन-ठन के रहती है। हमेशा इस तैयारी में रहती है कि उसे अच्छा दिखना है। यहां तक तो फिर भी ठीक है क्योंकि नारी का मौलिक अधिकार है कि वह सिंगार करे, सजे-संवरे, इससे उसे खुशी भी मिलती है। मगर इस सजने सँवरने के दौर में या कहें कि इस प्रदर्शन में वह एक वस्तु बन के रह गई है, नुमाइश की वस्तु।

कल ही मैंने बाज़ार में सब्ज़ी खरीदते वक्त देखा कि दो सत्रह-अठारह वर्ष की लड़कियां ऐसे वस्त्र पहनी हुई थीं कि ढंग से सब्ज़ी भी नहीं खरीद पा रहीं थीं। लग रहा था कि वह वस्त्र तन ढकने के लिए नहीं, फैशन के लिए पहने हैं। मैं मानती हूँ, हर एक व्यक्ति को अधिकार है वह जैसे चाहे वैसे जीवन जीए, जैसे चाहे वैसे कपड़े पहने, मगर जब हम बात करते हैं स्त्री की, तो क्यों ज़रूरी हो जाता है कि वह अपने शरीर का, अपनी सुंदरता का प्रदर्शन करती फिरे? बन-ठन के रहे? ऐसा लगे कि वह कोई वस्तु है जिसे अत्यंत आवश्यक हो जाता है कि वह अपने प्रस्तुतीकरण को बना के रखे, ऐसा क्यों है?

क्या किसी स्त्री का गुण पर्याप्त नहीं होता। उससे क्यों अपेक्षा रखी जाती है कि उसकी सुन्दरता ही उसका मूलभूत गुण है? उसके सुंदर ना होने से उसके गुणों का कोई मोल नहीं? इसी वजह से जो गोरी नहीं है वह उबटन लगाती रहती है, बाल रेशमी बनाना, घने करना, शरीर सुडौल बनाना, यह उसकी जीने की प्राथमिकता बन जाती है। कई बार देखा गया है कि स्त्री पूरे जीवन भर अपनी कमियों को दूर करने की कोशिश करती रहती है। क्या पर्याप्त नहीं है कि एक स्त्री अपनी सादगी से रहते हुए, अपने गुणों को निखारते हुए जिए और समाज में सर्वोपरि मानी जाए?

क्यों ऐसा होता है कि उसके वस्त्र किसी को रिझाने के लिए ही बनाए जाते हैं? तंग कपड़े, आधे कपड़े? इस तरह का जो परिधान है अक्सर समाज के हर वर्ग को काफी हद तक प्रभावित करता है। अगर देखा जाए तो ये स्त्रियों को खुद पसंद होता है। बनने सँवरने को उन्होंने प्राथमिकता में रखा हुआ है। स्वयं ही नए-नए परिधान पहनती हैं, असुविधा के कारण तकलीफ में रहती हैं, पर फिर भी तनाव में रहती हैं कि कहीं वह बुरी तो नहीं दिख रही? कहीं वह किसी से कम तो नहीं है? क्या वह प्रभावित कर पाएगी? इसी तनाव में अपना सारा समय गवा देती है। और दूसरी तरफ, देखा जाए तो पुरुष अपने टैलेंट, अपने गुणों के निखारने में ही व्यस्त रहता है। उसने कभी परवाह भी नहीं करी कि क्या वह अच्छा दिख रहा है या नहीं। उसे ही क्यों यह समाज आज़ादी दे देता है कि वह चाहे जैसा भी रहे उसे स्वीकार किया ही जाएगा।

विवाह बंधन में बंधने के पूर्व लोग यह सुनिश्चित करते हैं कि लड़की या वधू गोरी ही होनी चाहिए, सर्वगुण संपन्न होनी चाहिए, दिखने में भी बहुत खूबसूरत होनी चाहिए, गृह कार्य में दक्ष होनी चाहिए, पढ़ी-लिखी होनी चाहिए व्यवहार कुशल होनी चाहिए, क्यों? क्या वह एक सामान्य लड़की नहीं बन सकती? क्यों आवश्यक है कि वह सारे के सारे गुण में अव्वल हो? क्यों एक पुरुष से यह कामना नहीं की जाती कि वह भी व्यवहारिक हो, स्त्री और उसके परिवार के प्रति सम्मान की भावना रखे? क्यों उसे यह स्वतंत्रता दी जाती है कि वह कभी भी किसी का भी अपमान कर सकता है? अगर समझौता की भी बात है तो क्यों ऐसा है कि सिर्फ स्त्री ही समझौता करे? पुरुष अपने मेल इगो में मदमस्त रहे और कभी भी ना झुके?

जब भी ऐसी संभावना व्यक्त की जाती है कि स्त्री सारे गुणों का विकास कर चुकी है और वह अब आगे बढ़ने वाली है तो क्यों सारे लोग उसके पीछे लग जाते हैं? ताकि वह दूसरों की बराबरी ना कर सके? आखिर क्यों जब भी वह अपने गुणों के कारण प्रसिद्धि पाती है, तो भी लोग उसके नैन-नक्श, उसके कपड़ों के बारे में बातें कर उसे नीचे गिराने का सोचते हैं? क्यों हर एक नारी मजबूर है? उसे वही परिपाटी में डाल दिया जाता है कि उसे अपने आप को प्रस्तुत करना ही है, प्रदर्शन ही करना है, क्यों नहीं वह अपने मूलभूत गुणों के साथ अपनी सादगी के साथ बिना स्त्रियोचित दिखावा किए जिए।

क्यों एक पुरुष साधारण जीवन जीते हुए अपने गुणों के कारण तरक्की कर सकता है, और वहीं क्यों कोई स्त्री लगातार अपने वस्त्रों को छोटा करते हुए फैशन के कारण गैर सुविधाजनक वस्त्रों को पहनने को मजबूर होती है? ऐसे कपड़े इतने सुविधाजनक तो नहीं होते कि कोइ साधारण तरह से चल-फिर सके, सीढ़ियां चढ़ सके। इसके बदले क्यों ना हम सुविधाजनक वस्त्र पहनें, जो हमारे सारे अंगों को ढकें, सरलता से अपने कार्य को अंजाम दे सकें, और ज़्यादा सुरक्षित महसूस कर सकें।

हमें अपनी टीनएजर बच्चियों को भी समझाना चाहिए कि वह एक स्वतंत्र इकाई है उन्हें किसी भी पूर्व बातों का अनुकरण नहीं करना चाहिए। उन्हें इतनी शिक्षा तो हमने दे ही दी है कि वह अपने पैरों पर खड़ी हो सकें अपने निर्णय खुद ले सकें। खुद पर यकीन करें, अपने गुणों को निखारें और अपने बलबूते पर आगे बढ़ें। आप वस्तु नहीं हैं। आप अपने व्यक्तित्व निखार के आगे आएं, विश्वास करें खुद पर, अपनी शक्ति पर।

2019 के बाद अब मौका दें पुरुषों को। ज़रा वो भी सजें-संवरें। आजकल पुरुष भी तो सैलून में खुद को सँवारने में लगा है, जिम में पसीना बहाकर, खुद को निखार रहा है। थैंक्स टू सल्लू मियाँ, सखियों अब थोड़ा टेंशन इन्हें  भी लेने दो।

क्या कहती हो सखी?

उनकी बात वहां बैठी सभी महिलाओं को जची और एक कड़वा सच लगी। सभी ने तालियों से उनको समर्थन के साथ अपनाने का आश्वासन दिया।

मूलचित्र :

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