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ये सलीका सीखाने का अचूक अस्त्र था, "चार लोग क्या कहेंगे!" वैसे, ये चार एक साथ कभी सामने नहीं आए, किन्तु लाखों लड़कियों की जीवन दशा इनकी वजह से खराब थी।
ये सलीका सीखाने का अचूक अस्त्र था, “चार लोग क्या कहेंगे!” वैसे, ये चार एक साथ कभी सामने नहीं आए, किन्तु लाखों लड़कियों की जीवन दशा इनकी वजह से खराब थी।
बचपन की बातें कोई नहीं भूलता, चाहे वो अच्छी हों या बुरी। बचपन की एक बात जो उस वक्त, या यूँ कहें कि अल्हड़ उम्र का तकाज़ा था, गहराई से कभी समझ ही नहीं आई, वो थी, ‘सलीके से रहने’ की हिदायत।
छुट्टियों में जब हम सब भाई-बहन इकठ्ठा होते तो दिन-रात घर में हँसी-ठिठोली होती और ऐसे में अचानक ही बड़े चाचाजी की आवाज गुंजती, “कितना शोर है लड़कियों का!”
हँसते हुए हम मुँह बन्द करते और माँ, चाची आँखें दिखा कर चुप होने का ईशारा करतीं।
तब लगता था कि कमरे से लगा उनका वकालत का ऑफिस है। काम में हमारी हँसी बाधा बनती होगी इसलिये कहते हैं। पर उम्र के साथ पता चला कि ऊँची आवाज मे हँसना तो सलीके के दायरे से बाहर है।
“लोग क्या कहेंगे? सलीके से रहो!”
सलीके के माएने हमें समझ नहीं आते थे। सर से पैर तक करीने से दुपट्टे के साथ सलवार-सूट डाल लिया, अब और कितना सलीका दिखायें?
फिर तो हमें सलीके की पूरी फेहरिस्त पकड़ा दी गई।
सलीके से हँसना सबसे पहला था, क्योंकि ईश्वर ने हमें हंसमुख बनाया था। समस्याओं पर भी हँस लेने की नारी की इस कला में हम पारंगत थे, लेकिन नारी की हँसी भी दायरे में होनी चाहिए।
ये हमें समझाया गया, हँसी तेज़ ना हो, हर किसी के साथ ना हो, हर किसी की बात पर ना हो और किसी और पर तो कतई न हो।
चलने का भी एक तरीका था, अदब से, सुकुन से चलो, यूँ हाथ हिलाते हुए चलना शोभा नहीं देता। ये दादी थीं हमारी। हमने उनसे लाड में चल कर भी दिखाने को कह दिया और उन्होंने दिखाया भी। आँचल संभाल कर चलती हुई वो कितनी प्यारी लग रही थीं, किन्तु वैसा आँचल नहीं हो सकता अब।
दुनिया चाँद पर उड़ गई, हमें हाथ हिलाने की भी मनाही?
बोलने का सलीका सबसे मज़ेदार था। धीरे बोलो, ऊँची आवाज़ अच्छी नहीं। कम बोलो, ज़्यादा बोलना भी लड़कियों को शोभा नहीं देता। और, सबसे चौंकाने वाला था, ना बोलना! जी हाँ, जब तक ज़रूरत न हो तब तक मत बोलो। किसी भी विवाद में न पड़ो और अपने विचार अपने पास रखो।
पुरूष की हाँ में हाँ मिलाना ज़्यादा अच्छा है, ख़ासकर जब बात तुम्हारे दायरे के बाहर हो। बिज़नस, राजनीती, रिसर्च और अनुसंधान और हाँ, इकोनोमी जैसी चीजों के बारे मे हमें कुछ नहीं पता और इसलिये हमें चुप रहना चाहिए।
पहले तो विचार ही न करो, अगर करो, तो घर के पुरूष, चाहे पिता हो या भाई या पति उनसे इत्तफाक रखो और भगवान न करे अगर तुम्हारे दिमाग में अपने विचार आते हैं (खुदा खैर करे, औरत का अपना दिमाग!) तो विचार अपने पास ही रखो! ज़ाहिर ना करो, क्योंकि उसकी कोई ख़ास वकार है नहीं।
रसोई का काम पसंद हो या न हो, कम से कम पड़ोसियों के सामने तो चाय बना दो। चार लोग बातें बनाते हैं कि लड़कियों को कुछ नहीं सिखाया। अब ससुराल जा कर डिग्री तो नहीं परोसी जायेगी।
ये सलीका सीखाने का अचूक अस्त्र था, “चार लोग क्या कहेंगे!”
वैसे, ये चार एक साथ कभी सामने नहीं आए, किन्तु लाखों लड़कियों की जीवन दशा इनकी वजह से खराब थी। और, ये चार अन्दर-बाहर सब पर नज़र रखते थे। चाहे, देर रात घर आना हो, दोस्तों के साथ बाहर जाना हो, और तो और, घर के अन्दर क्या पहना, इस तक का सलीका इन चार लोगों के मुताबिक होना चाहिये। हमने सूट कैसा पहना? दुपट्टा लिया या नहीं? स्कर्ट कैसी थी? छोटी तो नहीं? कहीं जल्दी में ब्रा की झलक तो नहीं दे दी।
उफ़! ये सब सलीके के दायरे में ही था।
अब बताए भला कोई, इतने सलीकों के दायरे में रहेंगे, तो जियेंगे कब?
और सलीके की हर बंदिश हम पर क्यों?
उठने-बैठने से ले कर सोच तक को सलीके की बंदिश में बांधा गया। कभी परम्परा के नाम पर तो कभी संस्कृति के नाम पर, हर बार हमने सुना, “ज़रा सलीके से!”
पर वो कहते है ना, वक्त धीरे ले, पर करवट ज़रूर लेता है। तो बंदिश ढीली पड़ रही है और सलीके के दायरे छोटे हो रहे हैं।
बदलते वक्त का तकाज़ा है, कुछ बदलती सोच का, कुछ शिक्षा का असर, तो कुछ बरसों से पीड़ा झेलता नारी ह्रदय की बगावत। ज़रा-ज़रा सी सही बदलाव की सुगबुगाहट है।
बस उस वक्त का इंतज़ार है, जब ऊँची आवाज़ और ग़लत निगाह को हम भी कह सकें, “ज़रा सलीके से!”
इस उम्मीद को ताकत दीजिए।
मूलचित्र : Pexels
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