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पगफेरा – शक्ति का रूप और होंठों पर मुस्कराहट

रिंकी को मम्मी की धड़कन महसूस हो रही थी। दिल का एक हिस्सा जैसे टूट रहा हो अंदर और चेहरे पर जाने कौन सी शक्ति ले कर बैठी थीं।

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रिंकी को मम्मी की धड़कन महसूस हो रही थी। दिल का एक हिस्सा जैसे टूट रहा हो अंदर और चेहरे पर जाने कौन सी शक्ति ले कर बैठी थीं।

आधे सोये-जागे मेहमानों के बीच सुबह के करीब छः बजे थे। खुद को सँभालते हुए रिंकी की मम्मी तैयारी में लगी हुई थी। सुबह ही बेटी को विदा किया था लेकिन अगले ही दिन पगफेरे का मुहूर्त निकला था। देहरादून में तीन कमरे के इस मकान में चारों तरफ गद्दे-रजाई पड़े थे। और जाने कितने ही मेहमान आधे-तिरछे सो रहे थे। किराए पर मंगवा लिए थे पापा ने। और कुछ रिश्तेदार अग्गरवाल आंटी और शर्मा आंटी के यहाँ सो गए थे।

पहले ज़रुरत नहीं पड़ती थी घर के लोगों के लिए होटल वगैरह करने की ऐसे ही सब अब एक दुसरे का साथ देते थे और सब हो जाता था। घर के सामने ही पार्क था, जिसमे टेंट लगा हुआ था। कल रात वहीं तो हुए तो हुए थे फेरे। कुछ जली-बुझी लाइट्स दिख रही थी किचन की खिड़की से। हलके कोहरे में और सुन्दर लग रहे थे वो छोटे-छोटे बल्ब।

सर्दी थी थोड़ी मार्च के महीने में भी। मम्मी अपना स्वेटर पहन रही थी और किचन में फैला हुआ सामन समेट रही थी, ‘नया-नया रिश्ता है कोई भूल न हो जाए। पता नहीं कैसे होगी मेरी बच्ची। सोती न रह जाए सुबह ससुराल में। थकी भी तो होगी।’

‘फेरे पर वो सुनहरी साड़ी में राजकुमारी लग रही थी एकदम। कितना रोई थी वो साड़ी खरीदते हुए। महंगी थी न बहुत। 7 हज़ार की साड़ी उसके पापा ने पसंद की थी उसके लिए।  बहुत लड़ी थी पापा से दूकान पर ही। बावली है बहुत। चलो सब अच्छे से हो गया। किसी को कोई शिकायत न हो बस।’

‘क्या पसंद होगा इसके ससुराल वालों को, क्या ख़ास बनाऊँ आज।’ हज़ारों ख्याल बुलेट ट्रेन से भी तेज़ दौड़ रहे थे मम्मी के दिमाग में।

कहते हैं ना कि जितने ख्याल एक आम आदमी को एक दिन में आते होंगे, औरत को एक घंटे में आ जाते हैं और माँ को एक मिनट में।

जीजी तुम बैठो हम सब देख लेंगे। फिर चक्कर आ जाएगा।’ मौसी ने मम्मी को कहा। ‘सुबह रिंकी को विदा करते ही बेहोश हो गयी थीं न? एक तो व्रत ऊपर से इतना काम। और अपने कलेजे के टुकड़े को खुद से अलग करना कोई आसान काम तो नहीं होता।’ ये बात मौसी ने बोली नहीं।

‘न शशि मैं ठीक हूँ। पहली बार आ रहे हैं सब। जल्दी-जल्दी सब काम निबटा लूँ ताकि थोड़ी देर तो बैठ पाऊँ अपनी बच्ची के पास। एक तो पूरा घर फैला हुआ है, पता नहीं क्या सोचेंगे।’ मम्मी ने काम करते-करते बोला। ‘रिंकी को खीर बहुत पसंद है तेरे हाथ की, तू बस वो बना देना। बाकि मैं देख लूँगी सब। तू भी तो न सोई है एक मिनट भी। आराम कर ले शशि नहीं तो तबियत ख़राब हो जाएगी तेरी।’

मौसी थीं वो रिंकी की पर दाहिना हाथ बनी हुई थी मम्मी का। एक पैर पर खड़े हो कर सारा काम संभाला हुआ था। कौन सा सामान कहाँ रखा है। कब मम्मी को क्या याद दिलाना है और दवाई! दवाई भी बता गयी थी रिंकी सारी मम्मी पापा की।

‘संदीप उठ बेटा…’, बोलते-बोलते रुक गयीं मम्मी।’ अभी तो सोया है बेचारा। सारा काम संभाल लिया था इसने और इसके दोस्तों ने। अभी 15 साल का ही तो है। कब बड़े हो गए मेरे बच्चे इतने अभी ये सब सोचने का टाइम नहीं है।’ मम्मी ने खुद से कहा।

‘अरे दूध लाना है। सुनो किसी को कह के दूध मंगवा देना पंकज की दूकान से। और भी कुछ सामान मँगवाना है मुझे।’ मम्मी ने पापा से कहा।

‘अभी दूकान नहीं खुली होगी। सब ले आऊँगा मैं। रिंकी आ रही है। उसका कमरा ठीक कर दूँ  पहले, नहीं तो आते ही गुस्सा करेगी। कहेगी, पापा मेरे जाते ही मेरा कमरे का भी ध्यान नहीं रखा…’, और कहते-कहते गला भर आया पापा का। मम्मी ने अपने आँसू छिपा लिए और घर के किसी दूसरे  कोने में चली गयी।

सारे काम 4 गुनी स्पीड से करने वाली मम्मी जब बाथरूम में 15 मिनट से ज़्यादा समय बिताये तो समझ जाओ की रो रही हैं अंदर। हमेशा मुँह धो कर निकलती थी।

सूरज अपने गति से ही उग रहा था पर घर में सबके लिए एक तरफ तैयारी का समय कम पड़ रहा था, और दूसरी तरफ, बेटी से मिलने का इंतज़ार भी लम्बा होता जा रहा था।

‘छोटी वो सफ़ेद वाले सोफे के कवर निकाल ले और बेडशीट चेंज कर ग्रीन वाली। वो बॉर्डर वाली।’ तभी किचन से कप टूटने की आवाज़ आयी तो निम्मो दीदी ने कहा, ‘कुछ न मौसी। एक कप टूट गया है।’ मम्मी ने काम करते-करते आवाज़ लगाई, ‘बेटा लगी तो नहीं तुझे।’

और बिना जवाब का इंतज़ार किये हुए और काम में लग गयी। तभी कोई बाथरूम से चिल्लाया, ‘चाची गर्म पानी नहीं आ रहा बाथरूम में।’

‘हैं बेटा! रुक, मैं गैस पर कर के देती हूँ। जल्दी से कोई अंगीठी चालु करवा दो ज़रा। गीज़र में नहीं हो रहा अब पानी गर्म। सब जल्दी-जल्दी निबट जाएँगे नहाने से।’

इसी हबड़-तबड़ में निकली थी वो सुबह। पिछली ३-४ सुबह की ही तरह। बस आज खालीपन था बहुत। रोज़ सुबह तो ढोलक की आवाज़ से शुरू कर देती थी बुआ और बड़ी चाची। घर की सब औरतें अपनी-अपनी चाय पीते-पीते मंगल गीत और बरनी गा लेतीं थी। पर आज, आज तो रिंकी  …और फिर काम में लग गयी मम्मी। अपना भरा सा गला लिए।

दिन के करीब २ बजे थे और तभी घर के गेट पर गाड़ी आके रुकी। घर का गेट खुला ही हुआ था। वरांडे में हलवाई का सामान फैला हुआ था। मेहमान आ जा रहे थे और छोटे बच्चे। गली-मोहल्ले के बच्चे और परिवार के बच्चे किसी में फर्क करने का समय नहीं था किसी के पास। मम्मी बिना चप्पल के भागी तो पीछे से मौसी आरती की थाली ले कर आयी। साड़ी पैर में फसी और बस गिरने ही वाली थी कि दामादजी ने आके संभाल लिया।

‘अरे मम्मी आराम से। ले आया जी मैं आपकी बेटी को आपसे मिलवाने।’ हँसी  का मखौटा पहने मम्मी को रिंकी के अलावा कुछ न तो दिखाई दे रहा था न सुनाई।

‘हमेशा बेढंगे कपड़े पहनने वाली मेरी झल्ली ऊपर से नीचे तक लक्ष्मी का रूप लग रही थी। सर पे साड़ी का पल्ला। अच्छी चिमटी लगायी हुई है। वो उसकी मांग में भरा सिन्दूर जो रात को फेरे पर ही लगाया था, कितना सुन्दर लग रहा है। जूड़ा कैसे बनाया होगा? इसे तो आता ही न था बाल बनाना ढंग से। हमेशा मैं  ही बनाती थी इसके बाल और जब तक पूरे सँभालूँ हमेशा भाग जाती थी। एक जगह बैठा कहाँ जाता है इससे।एक हाथ में वो शादी वाला ही पर्स पकड़े, दुसरे हाथ से अपनी साड़ी की उलटी-पुलटी बनी प्लीट्स जो रस्ते में और भी ख़राब हो गयी थीं, उन्हें सँभालते हुए बस आकर मम्मी से चिपक गयी।’

मम्मी के कान में उसकी चूड़ियों की आवाज़ आयी और आँखों में बस लगातार बहते आँसू ही आँसू थे। ऐसा लग रहा था, सालों बाद अपनी बेटी को कलेजे से लगा रही थी। पापा अपनी बारी का इंतज़ार कर रहे थे। पर सबके आव भगत में अपनी बेटी को उस वक़्त गले भी न लगा सके। जी तो कर रहा था गोदी में उठा लें अपनी छोटी सी गुड़िया को, ‘कैसे संभाल ली इसने साड़ी…’

आँसू पोंछ कर ही रह गए पापा और रिंकी भी देख के रह गयी। सबके चेहरे के भाव बहुत मुश्किल थे पढ़ पाने। मौसी और बुआ ने सबका तिलक किया और सबको अंदर आने को कहा। रिंकी को भी सब हॉल में ले जा रहे थे और उसका मन कह रहा था, ‘हॉल में! मैं  क्यों? अरे मैं क्यों बैठूँ हॉल में? मैं कोई मेहमान थोड़ी हूँ!’ हमेशा बाहर से सीधे टीवी वाले रूम में आके बैठ जाती थी वो, जब तक मम्मी की डाँट नहीं पड़े। तब आधे-एक घंटे बाद कहीं जा कर अपनी चप्पल उतार के हाथ मुँह धोती थी।

और आज हॉल में? कुछ हिचकते हुए अंदर आयी तो सोफे पर नज़र पड़ी, ‘ओह! मम्मी ने सफ़ेद वाले सोफे कवर बिछाये हैं आज।’ छोटी सी हँसी आयी उसके चेहरे पर, ‘हैं भाई दामाद आये हैं!’

‘आज पहली बार अपने घर में इतना पराया सा महसूस हो रहा था। अजीब सा। सामने मेरे हाथ की पेंटिंग थोड़ी सी टेढ़ी थी। उठ के ठीक करने वाली थी, पर अचानक याद आया सब बैठे थे। २ हाथ की दूरी पर बैठे पापा से चाह कर भी गले नहीं लग पा रही थी और बस सुबक के रह गयी।’

संदीप सबके लिए पानी ले कर आया, तो रिंकी की तरफ भी ट्रे बढ़ाई। ‘संदीप मुझे पानी दे रहा है। पर मैं क्यों पीयूं इन कांच के गिलास में? स्टील के गिलास में पीती हूँ न मैं तो। पर संदीप मुझे पानी दे रहा है। तबियत ठीक नहीं है लगता है इसकी। पापा जब भी उससे कोई काम बोलते थे तो बस चिढ़  के यही बोलता था, ‘मुझसे ही काम कराओ सब। ये बैठी रहती है। इसे कोई कुछ नहीं कहता।’  ‘संदीप बड़ी बहिन है तेरी। तमीज़ से बात न कर सके है तू कभी?’ मम्मी हमेशा ऐसे ही गुस्सा करती थी। पर ये मुझे दीदी क्यों बुला रहा है। हमेशा तो जीजी कहता है न?’

बहुत सारे ख्याल आ रहे थे रिंकी के मन में। अचानक उसके बचपन की याद में उसे उसकी सास की आवाज़ आयी। रिंकी की सास ने उसका मन पढ़ लिया था। शायद वो भी इस दौर से हो कर गुज़री होंगी। बस तब उनका मन जाने किसी ने पढ़ा होगा या नहीं। हँसते हुए बोली, ‘जा बेटा आराम से अंदर बैठ जा।’

उनके कहते ही रिंकी तपाक से उठी और मम्मी को देखने लगी। वो समोसा-जलेबी लगा रही थीं। ‘आज तो मम्मी छप्पन भोग ही परोस देंगी। खैर अंदर जाना है मुझे बस।’ अपने मन में सोचती हुई वो इंतज़ार कर रही थी, कब मम्मी का इशारा मिले और वो भागे अंदर।

मौसी ने रिंकी का हाथ अपने हाथ में लिया और उसे अंदर वाले कमरे में ले गयी। काफी रिश्तेदार जा चुके थे, पर फिर भी घर में अपना कोना मिल पाना अभी मुश्किल था। पापा जल्दी से अंदर आये और अपनी गुड़िया को चिपका लिया। दोनों ही खुद को रोक न सके और लगे रोने। बुआ ने आकर पापा को संभाला तो पापा ने बस इतना पुछा, ‘तू ठीक है न?’

रिंकी ने पापा के आंसू पोंछते हुए कहा, ‘हाँ पापा। आप ठीक हो?’

पापा बोले, ‘मेरी जान तो तुझमें है बेटा।’

तभी पीछे से रिंकी की छोटी बहिन आयी और बोली, ‘हां पापा, मुझे हमेशा से पता था, आप इसको ही ज़्यादा प्यार करते हो।’ और सबके चेहरे पर दो सेकंड के लिए ही सही एक हँसी आ गयी।

संदीप आज चाय ले कर आया था जीजी के लिए। वो बोलता नहीं है ज़्यादा और खुद को एक्सप्रेस करना तो पाप है उसके लिए। पर जीजी के पास बैठ गया पाँच मिनट। दीदी के हर सवाल पर ‘बस’  कह देता हमेशा की तरह। अपनी बहिन को इतना सजा हुआ देखने की आदत नहीं थी उसको।हमेशा जीजी से मार खाने वाला भाई आज ‘गुड बॉय’ बन गया था और रिंकी को ये बिलकुल अच्छा नहीं लग रहा था। आव-भगत में बिज़ी मम्मी मेहमानों के पास बैठती, पर मन उनका सिर्फ और सिर्फ रिंकी में लगा था।

‘भाभी जी कोई गलती हो जाए, तो बच्ची समझ के माफ़ कर देना। बहुत सीधी है मेरी बच्ची और कहते-कहते आँख भर आयी मम्मी की।” बोलीं, ‘मैं अभी आती हूँ’ और सीधे पहुँची रिंकी के पास।

रिंकी ने मम्मी को बैठाया और पूछा, ‘तबियत ठीक है आपकी? कुछ खाया कि नहीं आपने। छोटी ने बताया आपको चक्कर आ गया था सुबह। कल भी व्रत था आपका। एक तो मुझे बिलकुल समझ नहीं आती ये रस्में। बेटी की शादी में माँ-पापा ही कुछ खा नहीं सकते। अभी खाओ पहले आप मेरे साथ..’

‘अरे अरे मेरी राजधानी! चुप हो जा। तू ठीक है न?’ मम्मी ने हर बात को अनसुना सा कर दिया क्यूंकि वो सिर्फ और सिर्फ ये सुनना चाहती थी कि वो खुश है।

थोड़ी देर में सबको पास के गेस्ट हाउस ले गए पापा। आराम करने के लिए और शायद अपनी बच्चे के साथ फिर पहले जैसे कुछ पल बिताने के लिए। सब मेहमान भी शाम तक निकल ही गए थे और सबके जाते ही रिंकी ने कहा, ‘मम्मी मेरा पजामा कहाँ है? टी-शर्ट दो मेरी।’

जब तक मम्मी आती वो तो अपने ढीले-ढले कपड़ो में आ गयी और मम्मी को बैठा के उनकी गोद में सर रख के लेट गयी। पापा भी बगल में बैठ गए। मौसी फिर से सबके लिए चाय बना के लाई और समोसा बचे हुए थे। किसी ने नहीं खाया था। सब हमेशा की तरह गोला बना के ज़मीन पर बैठ गए। चाय की एक-एक चुस्की भरी और रिंकी बोली, ‘अब आया न मज़ा। यार मौसी, अदरक की खुशबू तो बड़ी अच्छी आ रही है।’

थोड़ी देर पहले सहमी से नए रिश्तो में बंधी रिंकी बहुत आज़ाद सी लग रही थी। बिलकुल पहले की तरह। सब रिंकी के आसपास बैठे हज़ारों बातें कर रहे थे और पापा बस उसे देखते जा रहे थे। अचानक बोले, ‘तू छोटी थी न, तो बुखार हो जाता था तुझे, अगर मैं कहीं भी बाहर जाता था, दो दिन के लिए भी।’

‘अरे भैया! मुझसे पूछ’, बीच में बोलीं मम्मी, ‘ऐसे रोती थी ये, पापा चाहिए पापा। फिर हमेशा आप इसके लिए कुछ न कुछ लाते भी तो थे। पर ये तो बस आपको देख के ही खुश हो जाती थी।’

सबकी आँखें नम हो गईं। पापा बोले, ‘तेरा कमरा साफ़ कर दिया था मैंने सुबह उठ के। देख लियो जा के।’ फिर बोले, ‘कहो मेरी किताबें कहाँ हैं? मेरा पेंट ब्रश कहाँ है।’

पेंटिंग का खासा शौक था रिंकी को। हर कमरे में एक पेंटिंग तो थी ही उसकी बनी। शादी में अपने साथ ले जाने के लिए एक-दो बेडशीट भी पेंट की उसने।

‘क्यों पापा कुछ भी’, रिंकी ने पापा को गले लगा लिया। दोनों भाई-बहिन कभी कुछ तो कभी कुछ ला रहे थे रिंकी के लिए। रिंकी बोली, ‘क्या बात है आज बड़ी सेवा कर रहे हो तुम दोनों।’ तो दोनों बोले, ‘अब तू पता नहीं कब आएगी न। हम नहीं लड़ेंगे। अब तू आजा न। जीजू से बोलो न यहीं पोस्टिंग ले लें। कुछ भी कर के आजा न पास में। मैग्गी भी तू ले लेना ज़्यादा और हमारी गुल्लक के सारे पैसे भी। तेरी पेंटिंग्स भी नहीं ख़राब करेंगे अब। तू आजा न।’

‘पागल हो तुम दोनों?’ रो-रो गले से लगा लिया रिंकी ने दोनों को और हमेशा की तरह मम्मी पापा ने अपने तीनों बच्चों को समेट लिया अपनी बाहों में।

‘अरे चलो भाई तैयारी करनी है। २ घंटे में निकलना है रिंकी को’, बड़ी बुआ ने सबको सँभालते हुए कहा। बड़ी बुआ की बहुत ख़ास जगह रही है पापा के लिए। उम्र में काफी बड़ी हैं वो पापा से। उन्हीं के पास पीटते हुए पढ़ाई पूरी की है पापा ने। फूफाजी तो अपना बच्चा ही समझते हैं पापा को।

रिंकी के जाने की बात पर दिल बैठ गया सबका, एक बार फिर। विदाई के समय तो अगले दिन मिलने की उम्मीद थी। हम कैसे रहेंगे अब। सबके मन में यही बात चल रही थी। तब मम्मी ने कहा, ‘शशि तू पहना देना इसको साड़ी। वो पीली वाली अच्छी लगेगी।’

‘सीधे हाथ का पल्ला अच्छा लगेगा जीजी’, मौसी ने कहा।

‘तुम दोनों देख लेना। मैं सब सामन तैयार करूँ। परेशानी में या किसी भी मुश्किल में मम्मी में अचानक कहीं से शक्ति आ जाती थी हमेशा। हमेशा ऐसा ही होता है। मम्मी अचानक से सारी बात बदल देती हैं। सबको सँभालते हुए। सबको समझाते, ख़ासकर पापा को। उन्हें पता था कि उनसे भी कहीं ज़्यादा पापा के लिए मुश्किल है रिंकी को भेजना। सबको सख्ती से काम बाटने लगी मम्मी और पलट के रिंकी को देखा तो रो रही थी वो।

सबको काम पर  लगा कर मम्मी रिंकी के पास बैठीं और बोली, ‘देख बेटा, शादी हो गयी है अब तेरी। अब सब ख़ुशी-ख़ुशी तैयार हो जाओ। हम सब ठीक रहेंगे यहाँ। ये समय वापिस नहीं आता। हर पल को जियो खुल के। खूब-खुश रहो। जितनी भी हो सकती हैं, खुशियाँ बटोर लेना। सबको बाँध के रखना है तुझे। जितना प्यार तू अपने भाई-बहनों  को करती है उससे ज़्यादा करना है तुझे अपनी नन्द को। अब बेटा तुम अपनी गृहस्थी में मन लगाना। तू हमारी चिंता मत करना। तू खुश रहेगी तो हम भी खुश रहेंगे हमेशा।’ और उसे बस गले लगा लिया।

रिंकी को मम्मी की धड़कन महसूस हो रही थी। दिल का एक हिस्सा जैसे टूट रहा हो अंदर और चेहरे पर जाने कौन सी शक्ति ले कर बैठी थीं। रिंकी ने भी आंसू पोंछे और खुद को मज़बूत किया।मम्मी फिर से पंद्रह मिनट तक नहीं दिखी। किसी कोने में होंगी। इस समय किसी के सामने कहा रोने वाली थीं वो।

आज १२ साल हो गए हैं रिंकी की शादी को और अपनी मम्मी की बेटी ही है न वो। कोई भी परेशानी हो बस चेहरे पर शक्ति का रूप लिए और होंठों पर मुस्कराहट लिए संभाल लेती है सब। वो भी बाथरूम में ही जाती है दस-पंद्रह मिनट के लिए अपना कोना ढूंढने। चेहरा धो के ही निकलती है वो भी।

मूलचित्र : Pexels

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