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आँखों ही आँखों में कटी, नहीं भूलती वो रात

"आप सभी लोग बिलकुल परेशान न हों। आप अपना सामान साथ लीजिये और हमारे घरों में चल कर आराम करें। भोजन भी हमारे साथ ही हो जायेगा।"

“आप सभी लोग बिलकुल परेशान न हों। आप अपना सामान साथ लीजिये और हमारे घरों में चल कर आराम करें। भोजन भी हमारे साथ ही हो जायेगा।”

दोस्तों, यह कहानी नहीं मेरे जीवन में घटित सच्ची घटना है। हम सभी के जीवन में कुछ ऐसे अविस्मरणीय पल आते हैं जो हमारे स्मृतिपटल पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।

बात आज से बाइस वर्ष पूर्व उस समय की है जब मैं अपने पति और दो छोटे बच्चों के साथ बद्रीनाथ एवं केदारनाथ की यात्रा पर जा रही थी। हमें लगभग सवा तीन सौ किलोमीटर की दूरी बस द्वारा तय करनी थी। हमारी यह यात्रा प्रात: क़रीब आठ बजे आरम्भ हुई। बस उत्तराखण्ड के पहाड़ी रास्तों पर लगभग दो-तीन घंटे चली होगी कि अचानक रुक गई। आगे बसों, ट्रकों और गाड़ियों की मीलों लम्बी क़तार लगी थी। पूछने पर पता चला कि आगे लैंड स्लाइड हो गया है और पहाड़ का पूरा मलबा सड़क पर आ गया है, रास्ता खुलने में चौबीस घंटे से भी ज़्यादा का समय लग सकता है। 

यह सुन कर हम सभी यात्री परेशान हो गये। हमारे पास न तो ज़्यादा पीने का पानी था और न ही कुछ खाने-पीने का सामान। छोटे-छोटे बच्चों के साथ ये चौबीस घंटे कैसे कटेंगे? हम बड़े तो बिना अन्न-जल के रह लेंगे, परन्तु बच्चे? बस में साथ के मुसाफ़िरों ने सलाह दी कि हम वापस हरिद्वार लौट जाएँ, परन्तु हरिद्वार पहुँचने के लिये सवारी कहाँ से मिलेगी? हमारी ही तरह और लोगों के पास भी खाने-पीने का कुछ सामान न था। अब इन परिस्थितिजन्य परेशानी की तो हमने कल्पना ही नहीं की थी। मीलों लम्बी उस क़तार में हमारी जैसी ही सैकड़ों बसें, ट्रक एवं गाड़ियाँ थीं। 

हम इसी उधेड़बुन और परेशानी में बैठे थे कि देखा आस-पास के गाँवों से क़रीब पचास-साठ लोगों की भीड़ चली आ रही है। हम सब बुरी तरह डर गये क्योंकि हमें लगा यह भीड़ हमारे साथ लूटपाट करेगी। अनजान जगह पर ऐसी भीड़ देख कर मन में ऐसे विचार आना स्वाभाविक था। हमने देखा उस भीड़ से दो-तीन लोगों की टुकड़ियों में बँट कर वे लोग अलग-अलग बसों और गाड़ियों की ओर जा रहे हैं। अब हमें पूरा विश्वास हो गया कि वे गाँव वाले लूटपाट करने के इरादे से ही आये हैं।

उन्हीं में से तीन लोग हमारी बस में भी चढ़े। मैंने अपने दोनों बच्चों को अपने सीने में भींच लिया और डर कर सीट के कोने में दुबकने का प्रयास करने लगी। मेरे पति भी हम सब को घेर कर ख़ामोश बैठ गये।

“आप सभी लोग बिलकुल परेशान न हों। आप अपना सामान साथ लीजिये और हमारे घरों में चल कर आराम करें। भोजन भी हमारे साथ ही हो जायेगा।”

ओह! मैं क्या सोच रही थी और ये गाँव वाले तो कितने भले लोग निकले। 

मुझे अपनी सोच पर बेहद ग्लानि हुई। पर ऐसे ही हम इन गाँव वालों पर कैसे विश्वास कर लें? मेरे मन में शंका ने फिर फन उठाया। मैंने अपने पति से धीरे से पूछा, ” क्या इनके साथ जाना ठीक रहेगा?”

उनमें से एक ग्रामीण ने मेरी बात सुन ली, वह बोला, “आप चिन्ता न करें बहन, हमारे घर में भी माँ- बहन हैं। आपको कोई कठिनाई नहीं होगी। और हाँ, हम आपको पकवान तो नहीं खिला पायेंगे, पर ऐसा भोजन ज़रूर खिलायेंगे जिससे आप सब का पेट भर जाए।”

“नहीं-नहीं भैया मेरा यह मतलब नहीं था”, मैंने अपने कथन पर शर्मिन्दा होते हुए कहा। 

थोड़ी ही देर में हम सब, अर्थात लगभग पांच-छ: सौ लोग अपने-अपने सामान के साथ उस गाँव में जा पहुँचे। उस गाँव में लगभग पच्चीस घर रहे होंगे। अत: हम सब बीस-पच्चीस लोगों के समूहों में बँट गये, और एक समूह एक घर के हिसाब से हम सब अलग-अलग घरों में जा पहुँचे। सारे पुरुष यात्री घरों के बाहर बिछी खाटों पर बैठ गये और हम महिलाएँ उन घरों के भीतर चली गईं।

जिस घर में मैं गई वह सोनेलाल रावत जी का घर था। साफ़-सुथरा छोटी-छोटी कोठरियों वाला घर। उनके घर में उनकी पत्नी, बहू, बेटी और तीन साल की प्यारी सी पोती थी। उनका बेटा जीप चलाने का काम करता था और वह घर पर नहीं था। सोनेलाल जी की पत्नी ने बड़े खुले दिल से हमारा स्वागत किया। उन्होंने हम सबके लिये चाय बनाई और बड़े प्यार से हम सबको पिलाई। फिर आरम्भ हुई दोपहर के भोजन की तैयारी। सोनेलाल जी की पत्नी, बहू व बेटी ने मिल कर आलू की सब्ज़ी बनाई। हम महिलाओं ने भी रोटियाँ बनाने में उनकी सहायता की। मेरी बिटिया और उनकी पोती पिंकी में अच्छी दोस्ती हो गई। सबने मिल-जुल कर खाना बनाया व खाया।  हम सभी यात्रियों की भी आपस में अच्छी घनिष्ठता हो गई थी। ऐसा लग ही नहीं रहा था कि हम सब कुछ ही घंटों पहले मिले हैं। हम सब एक बड़े संयुक्त परिवार की भाँति साथ-साथ समय व्यतीत कर रहे थे।

लैंड स्लाइड के बाद सड़क बनने का काम युद्धस्तर पर जारी था। सीमा सुरक्षा बल के जवान इस काम में लगे हुए थे, परन्तु शाम होने के बाद अंधेरे के कारण काम नहीं हो सकता था। अत: यह निश्चित था कि अगले दिन दोपहर से पहले बद्रीनाथ का रास्ता नहीं खुल पायेगा। अब हमें रात भी उसी गाँव में बितानी थी। सोनेलाल जी की तरह उस गाँव के बाक़ी घर भी यात्रियों की सहायता में लगे हुए थे। किसी घर में नमक-रोटी और प्याज़ का भोजन था तो किसी घर में खिचड़ी। दोपहर की भाँति रात में भी हम सब ने मिल कर खिचड़ी और अचार खाया। शाम होते होते पहाड़ी इलाक़ों में पूरा सन्नाटा छा जाता है और ठंड भी बढ़ जाती है। अब हमारे समक्ष समस्या ये थी कि इतने लोगों के सोने के लिये न तो बिस्तर थे और न ही ओढ़ने के लिये कम्बल और रज़ाइयाँ। पर कहते हैं न, जहाँ चाह वहाँ राह! 

सबने मिल कर यह रास्ता निकाला कि सारे पुरुष वापस बसों में जाकर बस की सीटों पर सो जायेंगे और महिलाएँ और बच्चे घरों में सोयेंगे।ओढ़ने के लिये महिलाओं के शॉल और साड़ियाँ (चार तहों में मुड़ी हुई) प्रयोग की जायेंगी। बच्चों को तो एक के ऊपर एक कई कपड़े पहना दिये गये। किसी तरह हमने वह रात आँखों ही आँखों में काटी, हालाँकि सोनेलाल जी के परिवार की देखभाल से हम कृतज्ञ एवं अभिभूत थे। ऐसा ही अनुभव अन्य घरों में रुके हुए यात्रियों का भी था।

अगले दिन लगभग ग्यारह बजे सीमा सुरक्षा बल के जवानों के अथक परिश्रम से सड़क आवागमन के लिये तैयार हो गई। अपने गंतव्य की ओर निकलने से पहले हम यात्रियों के पास उन सहृदय ग्रामीणों का आभार व्यक्त करने के लिये शब्द कम पड़ गये थे। हमने उन ग्रामीणों को आर्थिक सहायता देने का प्रयास किया तो सोनेलाल जी ने हमारे समक्ष अपने हाथ जोड़ दिये और बोले, “हमारे प्यार का मोल न लगाइये साहब। आप सभी हमारे अतिथि हैं और अतिथि देवता समान होते हैं। बताइये कहीं कोई अपने ईश्वर से पैसे लेता है?”

मेरी बिटिया और पिंकी दोनों ऐसे रो रहीं थीं मानो दो बहनें बिछड़ रही हों। उन भोले गाँव वालों ने अपने प्रेम और सहृदयता से हम सभी का दिल जीत लिया था और ‘अतिथि देवों भव’ का साक्षात् अर्थ समझा दिया था और उनके प्रेम में बँधे हम बद्रीनाथ की ओर चल पड़े थे। 

मूलचित्र : Unsplash

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