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राष्ट्रमाता मूलमती देवी-प्रसिद्ध क्रांतिकारी और कवि रामप्रसाद बिस्मिल की महीयशी माँ

माँ मूलमती के लिए रामप्रसाद बिस्मिल ने लिखा, "यदि मुझे ऐसी माता नहीं मिलती तो मैं भी अति साधारण मनुष्यों के भांति संसार चक्र में फंस कर जीवन निर्वाह करता।"

माँ मूलमती के लिए रामप्रसाद बिस्मिल ने लिखा, “यदि मुझे ऐसी माता नहीं मिलती तो मैं भी अति साधारण मनुष्यों के भांति संसार चक्र में फंस कर जीवन निर्वाह करता।”

जब पूरी दुनिया माँ दिवस को भरपूर उत्साह और श्रद्धा से मना रही है, जब सामाजिक मीडिया के दरों दीवारों पर माँ शब्द की विशालता और अवदान को ले कर विभिन्न प्रकार की कोट्स, तस्वीरें और चर्चाएं जारी हो रही हैं, तब मैं बड़ी विनम्रता के साथ एक महान माँ की सच्ची कहानी आप सब के समक्ष उपस्थित करने के लिए यह लेख लिख रही हूँ।

रामप्रसाद बिस्मिल एक बेमिसाल क्रांतिकारी और कवि थे, जिनका परिचय पाठकों को शायद नए सिरे से देने की ज़रूरत मुझे नहीं है। वे ‘हिंदुस्तान रिपब्लिकन एसोसिएशन’ नाम के क्रांतिकारी संगठन के प्रतिष्ठाता थे और ‘मैनपुरी षडयन्त्र केस’ और ‘काकोरी रेल डकैती केस’ के मुख्य अभियुक्त थे, जिनके लिए उन्हें अंग्रेज़ी हुकूमत से फांसी की सज़ा मिली। गोरखपुर जेल में अपने आखिरी दिनों में रामप्रसाद बिस्मिल ने एक असामान्य आत्मकथा लिखी, जिसमें उन्होंने अपनी माँ मूलमती देवी की एक गौरवमयी छवि अंकन की थी।

मूलमती देवी का विवाह ग्यारह साल की उम्र में रामप्रसाद के पिता मुरलीधर से हुआ था। अध्ययन में गहरी रुचि के चलते उन्होंने बड़ी कठनाई से खुद पढ़ना-लिखना सीखा। रामप्रसाद के जन्म के बाद मूलमती ने और पाँच पुत्री और तीन पुत्रों को जना। उनकी सासु-माँ चाहती थीं कि कुल रीत के अनुसार पुत्रियों को तत्काल मार दिया जाए। पर मूलमती ने इस दुराचार का विरोध किया और बेटियों को अच्छे पोषण और सुरक्षा दे कर हर प्रतिकूलता के बीच भी ज़िंदा रखा। उन्होंने ही अपनी सभी बच्चों को प्रारम्भिक शिक्षा दी और कभी भी अपने पुत्रों और कन्यायों में फर्क नहीं समझा। मूलमती देवी यकीनन बीसवीं शताब्दी के नारीवादी सिद्धान्तों से परिचित नहीं थी, पर पूरा जीवन उन्होंने सही और सच का साथ गहरे प्रत्यय से दिया। उनकी ऐसी उदार और दृढ़ मानसिकता ही रामप्रसाद के महान आदर्शवाद और देशप्रेम के निभ बनी।

रामप्रसाद बिस्मिल किशोरावस्था में आर्य समाज के सदस्य बने। वहीं से उन में देश प्रेम जागृत हुआ और उन्होंने भारत के स्वतंत्रता संग्राम को अपना जीवन समर्पण करने का निश्चय कर लिया। पर उनका चुना हुआ पथ क्रांति का कठोर साहसी पथ था। मूलमती ने, जो एक निर्भीक तथा स्वदेशानुरागी व्यक्तिव थीं, शुरुआत से ही अपने बेटे के फैसलों और कार्यों का खुल कर समर्थन किया। इसके बदले उन्हें अक्सर अपने पति और ससुरालवालों से डांट-फटकार-दंड मिले, पर वो अपने आदर्शों से न हटीं।

अपने क्रांतिकारी बेटे को उसका पहला रिवॉल्वर खरीदने के पैसे उन्होंने ने ही दिए, पर इस शपथ के बदले कि रामप्रसाद कभी अपने अस्त्र का दुरुपयोग अपने शत्रु पर भी नहीं करेंगे। रामप्रसाद के तमाम क्रांतिकारी पुस्तकों को छापने का मूलधन भी मूलमती ने अपने जमाई हुई पूंजी से दिया।

अपने घोर संग्रामी जीवन में रामप्रसाद जब भी किसी कारण हताश या गुमराह हो जाते तो मूलमती के सदाचार, धैर्य और देश प्रेम उन्हें फिर से लड़ने की प्रेरणा देता था। संकट में अटल और निर्भय रहने की मानसिकता, रामप्रसाद बिस्मिल को अपनी माँ से ही प्राप्त हुई। 

आत्मकथा में रामप्रसाद लिखते हैं, “यदि मुझे ऐसी माता नहीं मिलती तो मैं भी अति साधारण मनुष्यों के भांति संसार चक्र में फंस कर जीवन निर्वाह करता। मेरे क्रांतिकारी जीवन में उन्होंने मुझे ऐसी सहायता की है, जैसे मैज़िनी(इटली के महान क्रांतिकारी) की माँ ने उनकी की थी तब।”

रामप्रसाद के राजनैतिक कर्यक्रम और गिरफ्तारी के चलते उनके परिवार को ब्रिटिश राज के प्रबल पीड़न का सामना करना पड़ा था। फिर भी उनकी माता हर सम्भव तरीके से अपने क्रांतिकारी बेटे को आर्थिक और दूसरी सहायता प्रदान करती रही।

19 दिसम्बर, 1927 को रामप्रसाद बिस्मिल को फांसी लगने वाली थी। उसके पहले दिन मूलमती अपने बेटे के साथ अंतिम मुलाक़ात करने जेल पहुँची। वे बेटे के लिए खाना पका कर साथ लायी थीं। उनसे मिलते ही रामप्रसाद रो पड़े, पर माँ मूलमती अविचल थीं। उन्होंने अपने बेटे से कहा कि ऐसे महान सन्तान के लिए उन्हें बेहद गर्व महसूस होती है, जिसने देश-मातृका के लिए अपना पूरा जीवन दान किया, तो फांसी के फंदे से रामप्रसाद को नहीं डरना चाहिए। उत्तर में रामप्रसाद बोले कि वो मौत से डर कर नहीं, अपने माँ से फिर कभी न मिल पाने की वेदना से रो रहे हैं। उस दिन रामप्रसाद की लिखी आत्मकथा की पांडुलिपि उस माँ ने टिफिन-बॉक्स में छुपा कर जेल से निकाल ली। बाद में उसे पुस्तक आकार में प्रकाशित किया गया।

रामप्रसाद बिस्मिल के बलिदान के बाद उनके शहर में ब्रिटिश अपशाशन के खिलाफ आयोजित एक सभा में मूलमती देवी अपने एक मात्र जीवित, पुत्र दस साल के सुशील चन्द्र के साथ उपस्थित थीं। वहाँ जनता के बीच बिस्मिल और उन जैसे सरफरोश नौजवानों के निष्ठा और त्याग के बारे में बोलते हुए मूलमती देवी ने बालक सुशील चन्द्र को भी देश के स्वंत्रता-संग्राम में अर्पण करने का वादा किया था।

ऐसी वीरांगना माताओं से बनी है हमारी मातृभूमि। ऐसी ही माँओं के बेटों ने अंग्रेजों से लड़ कर छीनी थी आज़ादी हमारी। ऐसी माँओं को आज का आज़ाद भारत भूल गया है तो क्या? मातृ दिवस के अवसर पर मूलमती देवी जैसी माँओं को एक बार याद करके प्रणाम तो किया ही जा सकता है।

मूल चित्र : YouTube 

          

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Suchetana Mukhopadhyay

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