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छूटे अपने, छूटा मोहल्ला, छूटे खिलौने, छूटा घरौंदा। याद रह गया तो ये आँगन, और मेरे घर की तरफ मुड़ती, वो गली।
कुछ रास्ते हमेशा याद रहते हैं, जैसे मेरे घर की तरफ मुड़ती वो गली, उस गली में सिमटे हैं कई लम्हें, जितना भी याद करो, बहुत कम हैं।
बचपन से लड़कपन तक, लड़कपन से जवानी, मेरे घर की उस गली में, बसती है वह कहानी।
डरते-डरते, गिरते-पड़ते, साइकिल सीखना, क्रिकेट के रन बनाकर, ज़ोर-ज़ोर से चीखना।
वह तितली पकड़ कर, दादाजी को दिखाना, रोज़ घर आकर, मम्मी की डाँट खाना।
गली के इस तरफ से, उस तरफ तक, रेस लगा करती थी, सबसे ज्यादा धूम दिवाली की, मेरी गली हुआ करती थी।
लड़कपन गुज़रा, जवानी आई, गली में चमचमाती , हमारी नयी कार आयी।
दुल्हन बन कर, जो मैं उस चौखट से निकली, मोहल्ले भर की भीड़, मेरी गली में बिखरी।
वह पड़ोस की मासी, और मोहल्ले के नाना, बगल वाला बिट्टू, और धोबन खाला।
छूटे अपने, छूटा मोहल्ला, छूटे खिलौने, छूटा घरौंदा।
याद रह गया तो ये आँगन, और मेरे घर की तरफ मुड़ती, वो गली।
मेरी किताब ‘कुछ अल्फ़ाज़’ से चंद पंक्तियाँ
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