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संस्कार-काश मुझे भी ना मिलते

काश! मुझे भी नहीं मिलती कोई विरासत। काश! मेरे शरीर से न लिपटी होती पिता, पति की इज़्ज़त।

काश! मुझे भी नहीं मिलती कोई विरासत। काश! मेरे शरीर से न लिपटी होती पिता, पति की इज़्ज़त।

कुछ मुँहफट सी लड़कियाँ,
कैसे कह देती हैं कुछ भी,
किसी से भी, कहीं भी।
नहीं करतीं वो लिहाज़ किसी का।
मैं अक्सर सोचती हूँ,
कैसे कह देती हैं वो सच,
लड़खड़ाते नहीं उनके होंठ,
सूखता नहीं उनका गला,
धड़कता नहीं उनका दिल,
पसीना आता नहीं
उनकी पेशानी में,
न गीली होती हैं
उनकी हथेलियाँ,
किसने सिखाया उन्हें
सच कहना!

निश्चय ही माँ ने,
नहीं दिए संस्कार उन्हें।
संस्कार जो हमें
सिखाते हैं चुप रहना।
आँखें झुकाकर,
होंठों को सिलकर,
सच-झूठ के फ़र्क
को समझकर भी,
वफ़ा-बेवफ़ाई को
परखकर भी,
सीखाते हैं समर्पण।
संस्कार की विरासत न देकर
मुक्त कर दिया है उनको;
उनकी माँओं ने।

इन्हें देखकर, चेहरा
सिकोड़ने वाली,
मुँह बनाने वाली,
जिव्हा में कसैलापन
महसूस करने वाली,
उन औरतों की आँखों में
अक्सर एक ‘काश’ देखा है मैंने।
काश! मुझे भी नहीं
मिलती कोई विरासत।
काश! मेरे शरीर
से न लिपटी होती
पिता, पति की इज़्ज़त।
काश! मैं भी होती
ज़रा सी मुँहफट!

 

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