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जीवन मेरा, निर्णय मेरे, आश्रित क्यूँ हो दूसरे के भाव पर? पार करना है मुझे जब अकेले हर बहाव को, तो मूक कैसे कर लूँ स्वयं को, अचर अपने स्वभाव को?
जीवन मेरा, निर्णय मेरे, आश्रित क्यों हो दूसरे के भाव पर? पार करना है मुझे जब अकेले हर बहाव को, तो मूक कैसे कर लूँ स्वयं को, अचर अपने स्वभाव को?
चरित्र का प्रमाण दूँ क्यों मैं हर पड़ाव पर,
जीवन मेरा, निर्णय मेरे, आश्रित क्यों हो दूसरे के भाव पर?
पार करना है मुझे जब अकेले हर बहाव को,
तो मूक कैसे कर लूँ स्वयं को, अचर अपने स्वभाव को?
मनुष्य हूँ दैवीय नहीं तो आशा क्यों चमत्कार की,
और मानते हो दैवीय यदि तो सहूँ क्यों फटकार भी?
राम-संगिनी नहीं जो धरती में समां सकूँ,
अग्नि के आलिंगन से सम्मान को जो पा सकूँ।
हूँ जीव इस धरा की मैं
आत्मीयता की आशा ही क्यों फिर अनुचित व्यवहार पर?
चैतन्य हूँ
अचेतन कैसे बनूँ अपने भावों के बहिष्कार पर?
तो मानुष तुम सिर्फ कर्त्तव्य के ही आधीन हो,
नहीं समर्थ तुम मेरे निर्णय और अधिकार को!
Writer. Humanitarian. Traveler. Thinker read more...
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