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"नाज़-नज़र और रक्षा-कवच, तेरी तरह बस बन जाती माँ" - एक बेटी द्वारा अपनी माँ को समर्पित, जिसकी समता वह ख़ुद माँ बनने के बाद ही समझ पाई।
“नाज़-नज़र और रक्षा-कवच, तेरी तरह बस बन जाती माँ” – एक बेटी द्वारा अपनी माँ को समर्पित, जिसकी समता वह ख़ुद माँ बनने के बाद ही समझ पाई।
माँ मेरी, मेरा अभिमान है तू, मेरे स्वाभिमान का आधार है तू; तेरे अंश का विस्तार हूँ मैं, मेरी रुह का आकर है तू।
जब दंभ हुआ युवा हूँ मैं, और सोच लिया पर्याप्त भी हूँ; क्यों बैठूँ बरगद की छाँव में, अब स्वयं कैलाश विश्वास हूँ।
तेरी थपकी की ममता से, अनुरागी ये शोर-दिखावा; मुझ पर न्योछावर तेरा आंचल, लगा मुझे वैराग्य-दिखावा।
तेरी सावन की पुरवाई वाणी, लगी जेठ-मेघ का छलावा; थक निढाल हुई तेरी अमृत-धारा, सवाल-ख़्याल सब प्रतीत हुआ बहकावा।
ऐ माँ बता, किया क्या तूने, बस निशा की निद्रा त्यागी थी; मुख स्वाद बढ़े, तन स्वस्थ रहे, यही तो तू जताती थी।
तेरी अनुष्ठान-साधना को मैंने, मन-ही-मन में तोला था; अब आ खड़ी तेरे धरातल पर, जब उसने नन्ही आँखों को खोला था।
नित्य सेवा में भूखी-प्यासी, फ़िर निशा में निद्रा त्यागी थी; अपने अंश को पाकर मैं भी, वात्सल्य-भाव रोक ना पाती थी। नाज़-नज़र और रक्षा-कवच, तेरी तरह बस बन जाती माँ।
हिमालय सा आदर्श तेरा, कैसे समझ ना पाई माँ? आज जो समझी तेरी समता, माँ मैं भी कहलाई माँ।
मूल चित्र: Pixabay
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