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‘हर घर कुछ कहता है’ – घर का मानवीकरण कर एक संदेश देती कविता।
कहाँ जाते हो तुम
मुझे छोड़ रोज़ ?
दौड़-धूप करते हो
क्यों तुम रोज़ ?
शायद पता है मुझे
क्यों जाते हो तुम!
क्या पाते हो तुम!
अपने लिए तो
मुझे बनाते हो।
तुम मेरे लिए
ही तो जाते हो।
मेरे लिए तो
सब सहते हो।
मेरे लिए ही
तो तड़पते हो।
पर तुम याद
रखना बस इतना।
जीवन क्षणिक
सत्य बस इतना।
भीष्म पितामह
ही हो यह जानो तुम।
सब कुछ बस
अपना ना मानो तुम।
कर्तव्यनिष्ठ बन
सत्यनिष्ठ बन
अरे! करो तुम सब।
मगर सहो न तुम सब।
बदन को भी दो तुम तरावट।
दूर किया करो तुम थकावट।
नहीं तो आकाशगंगा में
जब तुम उड़ोगे।
तो मुझे तुम बस
मुझे ही ढूंढा करोगे।
(घर=मानव तन)
मूल चित्र : pexels
डायरी का एक पन्ना-ज़िन्दगी, मुझे इंतज़ार है तुम्हारा
क्या तुम कर पाओगे उस पावन अग्नि में स्वाहा अपने मर्द होने के अहंकार को?
जब अपनी कहानी मैं खुद कहने लगी, तो तुम कहते हो मैं स्त्रीवादी हूँ?
मुकम्मल इश्क़ की, अधूरी दास्ताँ
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