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देवी की उपाधि किस लिए?

ये देवी की उपाधि किस काम की? आज देवी खुद ये सवाल करती है अपने पूजने वालों से - देगा कोई जवाब?

ये देवी की उपाधि किस काम की? आज देवी खुद ये सवाल करती है अपने पूजने वालों से – देगा कोई जवाब?

प्राथर्ना, पूजा, अनुष्ठान,
चुनरी, चूड़ियां, बिंदी, लाली,
मंदिरों में लम्बी कतारें।
चढ़ावे और दिखावे का अम्बार,
और ओवरटाइम करती-
अम्बा, काली, दुर्गा, ‘देवी माँ’,
या फिर जिस किसी नाम से भी,
आप उनका गुणगान करते हों!

सब कुछ तो है यहाँ,
भक्ति के इस ‘फुली कंसुमेराइज़्ड‘ बाज़ार में
आस्था का जैसे कोई सालाना स्वांग-
पाँव धोकर आरती उतारेंगे,
माथे पर टीका, कलाई पर लाल धागा,
और थमा देंगे कुछ सिक्के, नोट और चंद तोहफे!

साल के कुछ दिन चुनते हैं,
उसे सर-आँखों पर बिठाने के लिए,
और जारी रहता है 365 दिन वही तमाशा!
अलग-अलग तरीकों से,
करते हैं उसका तिरस्कार-
कभी नोच खाते हैं,
किसी भूखे गिद्ध की तरह उसके जिस्म को,
सड़क, चौराहे, कार, दुकान, दफ्तर,
या अपने ही घर में।

तीन, पांच, आठ, दस,
बारह, सोलह, बीस या अस्सी,
उम्र का लिहाज़ अब नहीं होता!
आदेश, उपदेश, नसीहतें भी, उसी की झोली में,
और अगर आने लगे-
उसके ख्यालों से बगावत की बू,
तो फिर,
धमकी, फरमान, फतवे,
चाकू, तलवार, गोली या गाली।

और, पुरुष मात्र होने का अभिमान काफी है,
दिखाने के लिए उसे-
उसकी असली ‘औकात’,
ताकि, हमेशा डरी रहे,
और, बिना किसी चूं-चपट के करती रहे,
संस्कारों की नियम-बद्ध परिक्रमा।
कर दे आत्मसमर्पण,
और रख दे हमेशा के लिए,
अपनी इच्छा, आवाज़, अंतरमन,
सब मसलकर तुम्हारे तलवों तले!

और जब कर डालते हो,
उसकी अस्मिता के चिथड़े-
तो मिलती है उसे बदले में,
अखबारों की सुर्खियां, कुछ आंकड़े,
कानून में संशोधन, योजनाएं,
सहायता राशि, आश्वासन और साहनुभूति।
लेकिन बुनयादी सोच को बदलने का जज़्बा,
किसी बंजर और बेजान ज़मीन के टुकड़े जैसा!

फिर ये ‘देवी की उपाधि’,
किस काम की?
क्यों ज़रूरी हैं ये ढोंग?
जब तुम दे नहीं सकते उसे,
अभिव्यक्ति की आज़ादी, और
फैसले लेने का अधिकार-
क्योंकि, मानसिकता नहीं बदलती,
मूर्तिओं के समक्ष नतमस्तक होने से-
उपवास और आडम्बर से!

तो फिर आप ही तय करिए
ऐसे में कितनी शुभ और सार्थक है
देवी की ये आराधना
ऐसे में शायद नहीं दे पाऊँगी आपको
ऐसे किसी पर्व की शुभकामना
शायद नहीं कह पाऊं
शुभ नवरात्रि!

प्रथम प्रकाशित 

मूल चित्र: Unsplash

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Nandita Sharma

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