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“आपकी तरह मेरे पास भी कोई रास्ता नहीं है, ये सब रोकने का – पर वक़्त अब रहा भी नहीं है सिर्फ़ बेबस होने का”- सोई इन्सानियत को अब जगाना होगा।
उसके ज़ख़्मों की कुछ दुकान सी लगी है-
हर गहरे होते ज़ख़्म की ऊँची सी बोली,
हर बार लगी है।
कभी एक दिन तो कभी एक हफ्ते तक लोग बात करते हैं,
फिर तो जनाब हर कहानी पुरानी ही लगी है।
कुछ नया दर्द और कुछ नयी कहानी,
ढूँढने की दौड़ बस फिर हर बार लगी है।
कुछ नया ज़ख़्म मिले तो उसकी बात करें,
कोई हो टूटा हुआ तो उसे अख़बार में पढ़ें।
कहाँ नयी दरिंदगी हुई-कहाँ फिर कोई बेटी रोई,
और जाने इस बार किसने किस हद तक-
अपनी इंसानियत खोई।
आपकी तरह मेरे पास भी कोई रास्ता नहीं है,
ये सब रोकने का-
पर वक़्त अब रहा भी नहीं है सिर्फ़ बेबस होने का,
मिलकर शायद आज नहीं, पर कल को बदल सकें।
इंशाल्लाह कभी तो ऐसा वक़्त आए-
कि अख़बार भी खुशखबरियों का खत बन के आ सके,
और हर इंसान सुबह की चाय पीते-पीते भी मुस्कुरा सके…
आमीन!
प्रथम प्रकाशित
मूल चित्र: Unsplash
An ordinary girl who dreams
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