कोरोना वायरस के प्रकोप में, हम औरतें कैसे, इस मुश्किल का सामना करते हुए भी, एक दूसरे का समर्थन कर सकती हैं? जानने के लिए चेक करें हमारी स्पेशल फीड!
कैसे ढूंढें ऐसा काम जो रखे ख्याल आपके कौशल और सपनों का? जुड़िये इस special session पर आज 1.45 को!
रंग तो महज़ रंग होते हैं, मगर हम उनको अलग-अलग नाम दे कर बाँट देते हैं। इसमें रंगों का क्या दोष? दोष है तो सिर्फ़ हमारा, हमने अपने मन-मुताबिक़ ये अलग-अलग नाम दिए।
कभी सोचा है अगर क़ुदरत में सिर्फ़ सियाह होता,
और इस सियाह का न कोई नारंगी होता ना हरा होता;
ढूंढ़ने वाले फिर भी ढूंढ लेते इसमें रंग दो, तीन और चार,
उनकी सुने, तो कोई ज़्यादा सियाह होता और कोई थोड़ा होता।
पर न जानते थे वो इस रंग की फ़ितरत है कुछ इतनी ख़ास,
बेपरवाह सबको समा लेता और अपनी तासीर में भुला देता।
फ़र्क उन नज़रों का है शायद जिन्होंने चाहा इसमें रंग भरना,
क्या मालूम था सब रंगो का घर है ये जाने कबसे;
फिर क्यों उसमें से हम चीर निकालें जो हमेशा से थे आख़िर उसके।
रंगों का दोष नहीं, है ये फ़ितरत उनकी,
जिन्होंने रंगों को बाँट डाला, मन-मुताबिक अपनी।
अब चाहतें है हम, आँख मूँद भूल जाएं इन रंगो को,
भूल जाएं,जो लाल बना है सिर्फ़ इस “मन-मुताबिक” के दम पे;
पर आँख मूँद आता है सिर्फ़ वही नज़र,
जिसमें न कोई नारंगी होता न हरा होता।
कभी सोचा है, अगर क़ुदरत में सिर्फ़ सियाह होता-
यही सोचते हैं अब कि काश क़ुदरत में सिर्फ़ सियाह होता।
मूल चित्र: Pixabay
अबके होली में मोहे रंग ऐसा पक्का दीजो कि छुटन न जाए…
आज रंग लेने दो मुझे मेरे ही रंग में
कृष्णकली तुम श्रेष्ठ हो, अपराजित हो
‘फेयर एंड लवली’ से फेयर शब्द हटाना ही क्या रंगभेद को रोकने के लिए काफी है?
अपना ईमेल पता दर्ज करें - हर हफ्ते हम आपको दिलचस्प लेख भेजेंगे!