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“ज़िन्दगी जिंदादिली का नाम हैं…” एक पिता ऐसे भी!

"आप बाप हो कर भी माँ का किरदार कैसे निभा सकते हैं इसकी मिसाल हैं अब्बा......"  इस रूड़ीवादी समाज के सारे नियमों से परे, एक ऐसे ही पिता का परिचय है ये। 

“आप बाप हो कर भी माँ का किरदार कैसे निभा सकते हैं इसकी मिसाल हैं अब्बा……”  इस रूड़ीवादी समाज के सारे नियमों से परे, एक ऐसे ही पिता का परिचय है ये। 

बचपन कितना खूबसूरत और सरल होता है। आपको जो दिखता है, आप उसे ही वास्तविकता मान लेते है। जब छोटी थी, तब लगता था हर घर तीन प्राणियों से बनता है – माँ, बाप और बच्चे। मानो कुदरत का यही नियम हो – साधारण और सुखद। पूरा परिवार, खुशहाल परिवार। पर कितने घरों में ये खुशहाली रहती है? दुनिया वही नहीं है जो हमारे दृष्टिकोण तक सीमित है, और यकीन मानिये आपको उन घरों को ढूंढने ज़्यादा दूर नहीं जाना पड़ेगा।

एक ऐसा ही घर है मेरा ससुराल! दस साल की शादी के बाद, तीन बच्चों के बाद, मेरे सास-ससुर की शादी तिनकों में बिखर गयी। क्यों? किस लिए? किसकी गलती से? इन बातों का न कभी कोई फ़ायदा हुआ है, और न कभी कोई निष्कर्ष निकला है। शादी कभी एक आदमी से नहीं चलती, शादी कभी मजबूरी से नहीं चलती। एक पहिये की गाड़ी पहले डगमगाएगी और फिर कुछ ही कदमों में रुक जाएगी। जब एक पहिया आगे भाग जाता है तो पीछे रह जाते हैं कुछ निशान और उस गाड़ी की सवारी।

इस घर में, जिस इंसान ने उस एक पहिये की गाड़ी को अपने दोनों कन्धों पे उठा के चलाया है वो हैं मेरे ससुर – असलम अब्बा! अब्बा पर  जब घर की ज़िम्मेदारी आयी तो उनके तीन बच्चे – दस (शाहजील), आठ(अदील), और पांच(शमील) वर्ष के थे। दुकान में काम और घर में नन्ही जानों की देखभाल करना कितनी मशक्कत का काम है, ये हमारी सोच के परे है। कुछ वक़्त लगा उन्हें अपने आप को सँभालने में। तलाक एक ऐसी चोट है, जिसका कोई मलहम नहीं। वो अपना समय लेती है, भरने में, और आदमी के उभरने में।

कारोबार डूबने लगा, सब कुछ बिखरने लगा। ये स्तिथि देख के अब्बा के भाई-बहिनों ने समझाया, हिम्मत दी और भरोसा दिलाया कि वो हैं  उनके लिए। आदमी एक विचित्र प्राणी है। वो सुनता और समझता सबकी है, परन्तु करता तभी है जब उसके दिल को कोई बात छू जाए।  अब्बा की कमज़ोरी ही उनकी ताकत बनी – औलाद! “अगर मैं नहीं उठा तो इन बच्चों का क्या होगा?” जिस दिन ये बात घर कर गयी, वो ऐसा उठे और भागे, कि आज तक दौड़ जारी है। बहनें आ कर, घर में खाना बनाने में मदद कर जातीं। पर उन सबके भी अपने ससुराल थे, अपनी ज़िम्मेदारियाँ थीं। तब भी छिप-छिपा के, अपने भतीजों के भूख से मुरझाये चेहरे सोच के, भाग के आ कर खाना बना देतीं।

शुरुवाती दिन सबसे कष्टदायी रहे। पांच वर्षीय शमील अभी प्राइमरी स्कूल में ही था, जब घर बिना माँ के हो गया। छोटा होने के कारण वो अपने दोनों बड़े भाइयों से जल्दी घर आ जाता। अब्बा दुकान किसी को संभालने को बोल कर, घर भागते उसे लेने, पर अक्सर देर हो जाती। कभी ग्राहक से बात करने में, कभी बिक्री पूरी करने में, या कभी ट्रैफिक में। हाफ-पैन्ट् पहना शमील अपने घर के दरवाज़े की देहलीज़ पे अक्सर सोया मिलता। उसका मासूम चेहरा, गले में टंगी बोतल और पीछे टंगा बैग देख के वो टूट जाते। धीमे से उसे उठा के, सीने से लगा के, दरवाज़े का ताला खोल के उसे अंदर ले जाते। सोचते की अब कल क्या होगा, पर अगला दिन आता और फिर वही क्रिया दोहराई जाती। ये जानते हुए कि कल फिर उतनी ही मेहनत है, उतना ही दर्द है, आप उठें और चल दें, ये आसान नहीं। ये दृढ़शक्ति की परिभाषा है। ये आपके सब्र की परीक्षा है।

ऐसा एक और वाकया – जो मुझे इस घर में आने के बाद पता चला और मेरे दिल को छू गया। अब्बा बेहद जज़्बाती हैं। औलादें अकेले पालने की वजह से उनके जज़्बात एक अलग सीमा पे रहते हैं। इस बार उस जज़्बात का शिकार हुई उनकी सबसे छोटी बहिन – गुड़िया आंटी (बच्चों की फूफी/बुआ)। बात उस समय की है जब शमील दस साल का था। फूफी के यहाँ दावत थी और पूरा खानदान इकट्ठा हुआ था।नवाब शमील बड़े हो रहे थे और उनके साथ उनकी भूख भी। तीन रोटियों पे धावा बोलने के बाद जब उन्होंने चौथी की मांग की तो  गुड़िया फूफी किचन में बुदबुदा के बनाने लगीं। अब्बा को भनक लग गयी और फ़ौरन किचन पहुँचे।

“क्या हुआ गुड़िया? क्यों परेशान हो?”

“कुछ नहीं भाई”

”अब बोलो भी”

”भाई मुझे लगता है शमील को पेट में कीड़े हैं। मतलब इतना छोटा लड़का इतनी रोटियां कैसे खा..”

बस इतना ही कहना हुआ था और अब्बा ने बाहर आ के शमील का हाथ पकड़ के उठा लिया। उनका ये व्यहवार देख सब सदके में आ गए।

“शाहजील, अदील, चलो”, अब्बा ये कह के शमील का हाथ पकड़ के चल पड़े। बाकि दो भाई भी अपने पिताजी के पीछे-पीछे चल पड़े।

“भाई क्या कर रहे हैं?” गुड़िया फूफी घबरा के बोली।

“एक बात समझ लो तुम, मेरे बच्चे किसी पे बोझ नहीं हैं। दो रोटी नहीं बनायीं जा रही है तुमसे इनके लिए।” अब्बा का पारा बढ़ गया था।

”भाई”, फूफी ने समझाने का प्रयत्न किया पर अब बहुत देर हो गयी थी। बात दिल को चुभ गयी थी। हाथ दिखा के अब्बा बोले “रहने दो”। घरवालों ने बहुत समझाया पर अब्बा ने किसी की नहीं सुनी। रास्ते से सालन और बहुत सी रोटी ले ली और घर आ के बच्चों को हाथ से निवाला बना के खिलाया। आखों से आँसू झलक रहे थे और बच्चे समझ नहीं पा रहे थे की अब्बा को हुआ क्या है?

अगर आप सोच रहे है की सच में ऐसा हुआ क्या था, ऐसा कहा ही क्या था गुड़िया फूफी ने? इसका जवाब सिर्फ वही आदमी दे सकता है जिसपे ये आप बीती थी। अब्बा को ये गुज़ारा न हुआ कि किसी ने उनके बच्चों के खाने पे टोक दिया, भले वो खुद की सगी बहिन ही क्यों न हो। जब दिल बहुत ज़ख़्म झेल लेता है, तो एक हलके से शब्दों के प्रहार से लहूलुहान हो जाता है। कुछ इसे बेबुनियाद कहेंगे, पर मेरे लिए वो एक जज़्बात है, एक एहसास।

इस दुनिया में कुछ भी नामुमकिन, नहीं ये हम सब जानते हैं, पर कुछ ही हैं जिन्हें असीम मुश्किल परिस्थितियों का सामना करना पड़ता है। और चुनिंदा लोगों को उन्हीं में जीना पड़ता है। अब्बा उन्हीं  में से एक हैं। आसान नहीं था उनका सफऱ, पर अगर इंसान दृढ़ संकल्प कर ले तो रास्ते आसान हो जाते हैं। अगर आपको अपने खुदा पे यकीन है और खुद पे भरोसा, तो दुनिया आपकी।

आप बाप हो कर भी माँ का किरदार कैसे निभा सकते हैं इसकी मिसाल हैं अब्बा। उन्होंने असल ज़िन्दगी में अपने बच्चों को खून और आंसुओं से सींचा है। उन्हें पढ़ा-लिखा के इस लायक बनाया है कि आज उन बच्चों का अपना एक मुकाम है, अपनी पहचान है। हम सबको पता है माँ क्या है, पर मुझे ये पता है कि वो बाप क्या है जो वक़्त आने पे माँ और बाप दोनों का फ़र्ज़ निभा गया। फ़क्र है मुझे कि मैं ऐसे घर से ताल्लुक़ रखती हूँ।

इन तीन भाईयों का प्यार और एकता, एक दूसरे के प्रति और अपने अब्बा के प्रति अनोखी है। जब आपने बुरा वक़्त साथ में देखा हो और आप साथ में उस मझदार से निकले हो तो एक अलग रिश्ता कायम होता है।  ऐसे घरो में रिश्तों में मज़बूती और खूबसूरती पनपती है।

आज अब्बा की तीन बहुएँ, पोता-पोती हैं। वो वक़्त निकल गया, पर सफऱ याद है। घाव भर गए, पर निशान बाकी हैं। अक्सर टीवी पे अपने ज़िन्दगी से जुड़ी कोई कहानी देखते हैं तो उनके अश्क रुके ना रुकते हैं। फिर मुस्कुरा कर कहते है – “मेरा भी वक़्त आया था। कुर्बानी देनी पड़ती है।”

वक़्त सच में बहुत बलवान है। समुद्र की लेहरों में खेलते हुए इंसान को पता नहीं चलता कब लहरें उसे अपनी गिरफ़्त में ले लें और डूबा दें। उसी तरह डूबते हुए इंसान को पता नहीं चलता कब लहरें उसे गेहराईओं से निकाल के किनारे पहुँचा दें। आज अब्बा की कश्ती अपने तट पे आ पहुंची है, और उस पे बैठीं वो तीन सवारी अब उस नाव के लंगर में तब्दील हो गई हैं। ये एक बाप का संकल्प है और एक परिवार की जीत।

“ज़िन्दगी जिंदादिली का नाम हैं, मुर्दादिल क्या ख़ाक जिया करते हैं……”

प्रथम प्रकाशित 

मूल चित्र: पिक्सेल्स 

About the Author

Saumya Srivastava

I did my MBA in finance and was part of the corporate world of market research for 5.5 years (on and off). I'm a mother of a beautiful and demanding baby girl. I' read more...

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