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बहुत हुआ अब! अपने अंदर की दुर्गा को ललकार कर जगाने का वक़्त आ गया है! जागो दुर्गा जागो!
हे माँ दुर्गा, तुम भी तो नारी थीं, अकेली ही, सब असुरों पे भारी थीं।
महिषासुर ने जब, उपहास किया, तुमने उसका सर्व, नाश किया।
आज भी, कुछ बदला नहीं, वो असुर ही है, इंसान नहीं।
यही प्रलय है – यही अंत है, यहाँ बहरूपी राक्षस, दिखते संत हैं।
क्यूँ हो रही इतनी यातना, मासूमों पे, क्यूँ भारी पड़ रहे हैं असुर, इंसानो पे?
कैसे रहें हम जीवित, ऐसी महामारी में, क्यूँ नहीं तुम आ जातीं हर नारी में?
तुम क्यूँ इस बात को नहीं समझ रहीं, तुम्हारे रूप की यहाँ कोई इज़्ज़त नहीं।
हे माँ दुर्गा, जागो अपनी इस निद्रा से, इंसानियत ख़त्म हो गयी अब दुनिया से।
या तो, हमारी भी शक्ति जगा दो, या फिर, सुरक्षित अपने पास बुला लो।
मूल चित्र : Pexel
Award winning short story writer. Author of two eBooks, loves to write poems and shares
दुर्गा भाभी का बलिदान राष्ट्र सदा याद रखेगा…
लड़की बड़ी हो कर माँ दुर्गा क्यों नहीं बनती? क्यों असुर का संहार नहीं करती?
मेरा बस एक ही सवाल है, क्यूँ?
दुर्गा माँ कहीं वापस नहीं जातीं, वे समा जाती हैं हम में!
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