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ईर्ष्या, वेलकम बैक! तुम्हें मैं अपनाती हूँ अपनी हर कमी के साथ

ईर्ष्या - आज जब मैं ख़ुद को, अपनी हर कमी के साथ, अपनाना चाहती हूँ तो खुल कर अपने अंदर के प्यार के साथ तुमको भी अपनाती हूँ।

ईर्ष्या – आज जब मैं ख़ुद को, अपनी हर कमी के साथ, अपनाना चाहती हूँ तो खुल कर अपने अंदर के प्यार के साथ तुमको भी अपनाती हूँ।

ईर्ष्या, शायद ही कोई होगा जिसने इसे महसूस नहीं किया। जहाँ प्यार का अतिरेक है, वहाँ इसका होना तय है। नन्हे से बालमन में यह तब पहली बार प्रकट होती है जब वो अपनी माँ की गोद में किसी दूसरे बच्चे को देखता है, फिर भले ही वो दूसरा बच्चा उसका अपना भाई/बहन क्यूँ न हो। शादी के बाद बेटे को किसी दूसरी लड़की में बंटते देखकर एक माँ के दिल पर जो सांप लोटता है-ईर्ष्या है। अपने पति को किसी और की फ़िक्र में देखकर पत्नी जिन अंगारों पर लोटती है-ईर्ष्या है। बच्चे होने के बाद पत्नी को बच्चे में ज्यादा व्यस्त देखकर पति के दिल से जो ठंडी, बेबस आह निकलती है-ईर्ष्या है।

ईर्ष्या या जलन, हम महसूस करते हैं और फिर एक अपराधबोध से घिर जाते हैं कि हमारे रिश्ते में शायद विश्वास की, प्रेम की कमी है इसलिए हमने ऐसा महसूस किया। इस बात पर एक किस्सा सुनाती हूँ।

एक बार, मेरे पति के कुछ दोस्तों ने रात को साथ खाना खाने का प्लान बनाया। मेरे पति, मुझे और बेटी को भी साथ ले जाना चाहते थे, जिस पर सभी दोस्त राज़ी हो गए। हम तीनों, मेरे पति के 4 अन्य पुरुष मित्र और 1 महिला मित्र-इतनी टोली थी हमारी और जगह थी दिल्ली का CP एरिया। हम सब शाम के 7:30 बजे नियत जगह पर मिले और कुछ देर की बातचीत के बाद रेस्टोरेंट की तरफ़ चल पड़े। चलते हुए रस्ते में मेरे पति की महिला मित्र को उसकी कॉलेज की कुछ सखियाँ मिल गईं। उसने हम सबको चलने का इशारा किया और ख़ुद अपनी सहेलियों से बतियाने लगी। हम लोग धीमी गति से चलते रहे ताकि वो भी साथ आ जाए। हम रेंगते-रेंगते रेस्टोरेंट तक जा पहुँचे, अपनी रिज़र्वड टेबल पर सज भी गए और उस महिला मित्र का कोई अता-पता नहीं था। घड़ी में 8:30 हो रहा था और वह महिला अभी तक नदारद थी। कुछ देर इन्तज़ार के बाद मेरे पति ने कहा, “मैं देखता हूँ, उसे लेकर आता हूँ”। मैंने अपने पति को मुस्कुराते हुए जाने का इशारा किया और अन्दर ही अन्दर मैं भभक उठी। उन जलन के पलों में मेरे मन में क्या-क्या न आया, जैसे कि यह 4 लड़के इनमें से कोई क्यूँ नहीं जा रहा? तुम, हम दोनों माँ-बेटी को अकेले  छोड़कर क्यूँ जा रहे हो? जब उस लड़की को ख़ुद अपनी सुरक्षा का कोई ख़याल नहीं है तो फिर तुम्हें क्यूँ है?  वो लड़की शायद कम्फ़र्टेबल है रात के इस व्यस्त माहौल में, फिर तुम अनकम्फ़र्टेबल क्यूँ ?

अभी इसी घटना का दूसरा पहलू सोचूँ, अगर, मेरे पति की जगह कोई और जा रहा होता तो मेरे मन में कैसे विचार आते? चलो अच्छा है, इनके ग्रुप में लड़की की सेफ़्टी किसी का तो कंसर्न है। कितना कंसीडरेट है यह लड़का जो उसे ढूँढने जा रहा है। उस लड़की के लिए भी खुश होती मैं कि उसे अच्छे दोस्त मिले हैं। यह भी सोचती कि पूरी दुनिया मतलबी और सारे मर्द एक से नहीं होते। अगर मेरी शादी न हुई होती तुमसे, तो यक़ीनन तुम्हारी इस बात पर मैं तुम्हें दिल ही दे बैठती। सब अच्छा ही अच्छा, कहीं कोई बुराई ढूंढें से भी न मिलती मुझे। पर क्यूँकि तुम मेरे हो चुके हो तो अब तुम्हारी इसी बात पर मैं जल-भुनकर ख़ाक हो गयी। तुम्हारा किसी और के लिए यूँ चिंता करना मेरे लिए कतई बर्दाश्त के बाहर था जबकि वो तुम्हारे परिवार की भी नहीं। कैसे मैं सिहर उठी थी इस ख्याल से कि तुम्हारी इस भलमनसाहत पर तो कोई भी लड़की फ़िदा हो जाएगी, फिर वो लड़की क्यूँ न होगी? क्या उन पलों में मेरी इंसानियत मर गयी थी? क्या उन पलों में मैंने तुम पर विश्वास खो दिया था? खैर, तुम थोड़ी देर में उसे लेकर आए और मैंने तुमसे यह बात कभी नहीं कही कि उस रात मुझ पर क्या बीती।

बार-बार मन में यह मंथन चलता रहा कि क्यूँ महसूस की मैंने वो जलन? मेरा अपराधबोध बार-बार मुझे मेरे प्यार की गवाही दिलवाता कि मैंने कभी तुम पर शक़ नहीं किया। उस रात भी-फिर ऐसा क्यूँ महसूस किया मैंने? क्या इसलिए  कि तुम्हारी वो फ़िक्र मुझे याद दिला गयी-इस तरह तो तुम मेरे लिए परेशां होते हो? क्या इसलिए कि मुझे मलाल हुआ-मैं, उस लड़की की जगह क्यूँ नहीं हूँ? क्या इसलिए कि उस पल वो लड़की मुझे और मेरे एक्स्ट्राआर्डिनरी स्टेटस को टक्कर दे रही थी?

तुमसे हर बात कह देने वाली मैं, यह बात कहने की कभी हिम्मत क्यूँ नहीं जुटा पायी? क्यूँ हर बार डर लगा कि कहीं तुम यह न समझ बैठो कि मुझे तुम पर भरोसा नहीं है? कहीं तुम यह न सोच बैठो, मैं उस रात अपने मन में तुम्हारे चरित्र पर उंगली उठा रही थी? तुम मुझसे नफ़रत न कर बैठो कि कैसी सी हूँ मैं-एक लड़की होते हुए भी दूसरी लड़की के लिए संवेदना नहीं है मुझमें? तुम मुझसे कोफ़्त न कर बैठो कि कैसी हूँ मैं-तुम्हारे अच्छे इरादों और अच्छे कामों पर मन मैला करती हूँ। तुम यह न सोच बैठो, जिस बात के लिए मुझे तुम पर फ़िदा होना चाहिए उसी बात के लिए मुझे इतनी असहजता है। उफ़्फ़! मेरा प्यार, मेरा विश्वास, मेरी इंसानियत, मेरी पहचान और तुम्हारी नज़रों में मेरी जगह, सब कुछ दाँव पर लगी हुई थी, फिर कैसे बताती मैं तुमको?

आज जब मैं ख़ुद को पूरी तरह समझना चाहती हूँ और पूरी तरह अपनाना चाहती हूँ, अपनी हर कमी के साथ, तो फिर इस ईर्ष्या पर बात करना ज़रूरी हो जाता है। अपने इस पहलू को छोड़कर अगर मैं आगे बढूँ तो यह ख़ुद से धोखा होगा। जान-बूझकर किया गया धोखा। अगर मैं ख़ुद से ईमानदार नहीं रह सकती तो तुमसे कैसे रहूँगी? तुम पर भरोसा करती हूँ, तुम्हारे प्यार पर भरोसा करती हूँ इसलिए तुमसे यह कहना और भी ज़रूरी हो जाता है। ख़ुद को आदर्शों के पिंजरे से निकालकर एक इंसान, बस इंसान, बनकर जीने का हक़ देना चाहती हूँ। बिना किसी शर्म और अपराध भावना के कहती हूँ-हाँ, ईर्ष्या, तू भी है मेरे मन में, फ़िर चाहे ज्ञानी इसे मेरा चारित्रिक दोष ही क्यूँ न कहें।

उस रात तुम ग़लत नहीं थे और जो तुमने किया वो हर ज़िम्मेदार दोस्त को करना चाहिए। उस रात मेरा जल जाना ग़लत था या सही, मैं नहीं जानती लेकिन नेचुरल था, इतना जानती हूँ। जब तक मैं ख़ुद को यह समझाने की कोशिश कर रही थी कि मुझे ऐसे महसूस नहीं करना चाहिए, तब तक यह ईर्ष्या एक दबंग पहलवान की तरह मेरे दिल को अखाड़ा बनाकर इधर से उधर उत्पात मचाती घूम रही थी। वो मुझे अपने होने और अपनी ताक़त का अंदाज़ा कराने पर आमादा थी और मैं उसे इग्नोर करने पर। लेकिन जब मैंने उससे कहा, ‘मैंने तुम्हें देख लिया, तुम हो, तुम भी मेरे बाकि एहसासों की तरह सम्मान के लायक हो’ तो उसने उत्पात बंद किया और सुकून की मुस्कराहट के साथ मुझे देखा। मैंने उसका हाथ पकड़कर उसे प्रेम के बगल वाली कुर्सी पर बैठा दिया। प्रेम और ईर्ष्या ने एक दूसरे का हाथ पकड़ लिया और प्यार से मुस्कुराने लगे। जैसे ही प्रेम कहीं जाने को उठता ईर्ष्या चौकन्नी हो जाती और मैं मुस्कुराकर कहती-वेलकम बैक।

मूल चित्र:

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