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“ये मुसलमान है”: यह पहचान ज़रूरी क्यों?

हिंदू, मुसलमान, सिख या ईसाई - ये मेरी पहचान क्यों? और, ये पहचान मेरे लिए ज़रूरी क्यों? इस पहचान से, एक इंसान होने के नाते, मेरा क्या फ़ायदा है? इसमें मेरा नहीं, सिर्फ़ और सिर्फ़ सियासत के ठेकेदारों का फ़ायदा है।

हिंदू, मुसलमान, सिख या ईसाई – ये मेरी पहचान क्यों? और, ये पहचान मेरे लिए ज़रूरी क्यों? इस पहचान से, एक इंसान होने के नाते, मेरा क्या फ़ायदा है? इसमें मेरा नहीं, सिर्फ़ और सिर्फ़ सियासत के ठेकेदारों का फ़ायदा है।

अक्सर लोगों के बीच से गुज़रते हुए,
जाने-पहचाने अजनबियों से मिलते हुए;
दबदबी सी जुबां मे कहते हुए,
मैंने सुना है
“देखो ये मुसलमान है…”

ये सुन कई मर्तबा,
आईने के सामने बड़ी देर
मैंने खुद को जांचा;
आखिर, मेरे दो ही कान, दो ही आँखें
और एक ही तो नाक है,
हाथों और पैरों की गिनती भी पूरी है।
सोचा, शायद
खून का लाल कुछ ज़्यादा गाढ़ा होगा।

इस सोच से तस्सली की ही थी
कि अमर के साथ एक रोज़, खेल-खेल में,
हम हाथ रगड़ बैठे
क्यों मेरा ख़ून मुसलमानी है और उसका हिन्दू…
ये ख्याल भी जाता रहा।

अम्मी ने बोला, उनका ख़ुदा राम है तो हमारा अल्लाह…
और हमारा अल्लाह उनके राम से बड़ा है;
और फिर उसकी अम्मी ‘माँ’ और मेरी माँ ‘अम्मी’ भी तो है।

सवालों के जवाब की खोज में,
कब मैं मुसलमान से मुजाहिद बनाया गया…
कब दूर देश से आया खिलजी लुटेरा,
अब याद नहीं;
न उन्हें याद रहा कि मुसलमान नाम से पहले,
मैं इंसान था।

याद तो रहा, बस दिवाली और ईद,
दोनों का साल-साल भर बेसब्री से इंतज़ार रहना,
और मोहल्ले भर में घूम-घूम
कई छतों को रंगो से भरना;
ईद की सेवईं को दोस्तों के साथ
कटोरे भर-भर चखना।

कुछ होश संभाला तो अहसास हुआ,
मुसलमान सियासी खिलौना होता है…
जो कभी कमल के कीचड़ में,
तो कभी पंजे की जकड़ में होता है…
और इस खेल में जीत सबको मुनासिब है।

कुर्सी की इस दौड़ के, ‘हम’ खिलाड़ी तो नहीं…
पर भाग, सिर्फ हम रहे हैं।

‘हम’ कौन?
हम वही, जो, कभी मुसलमान, कभी हिन्दू
कभी सिख, तो, कभी ईसाई…

ना समझें कि सिर्फ मैं मुसलमान हूँ
मैं मुसलमान हूँ और आप भी,
आप हिन्दू हैं और मैं भी…

नाम की इस हेरा-फेरी से
कई सदियों हम लुटे हैं…

ज़रा सोचें, समझें, और ख़ुद को ये जवाब दें
मुसलमान कौन है?

मूल चित्र: Pexels

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