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मेरा संडे कभी आया ही नहीं ! मेरे लिए कोई संडे क्यों नहीं बना?

मेरे लिए कोई संडे क्यों नहीं बना? आख़िर, मेरा संडे कब आएगा? "जैसे बाकी सबकी दिनचर्या संडे को चैन की सांस लेती है, मेरी अकड़ कर सर पर सवार हो जाती है। मुझसे वही सब काम करवाती है जो मैं आमतौर पर हर रोज़ करती हूँ।" 

मेरे लिए कोई संडे क्यों नहीं बना? आख़िर, मेरा संडे कब आएगा? “जैसे बाकी सबकी दिनचर्या संडे को चैन की सांस लेती है, मेरी अकड़ कर सर पर सवार हो जाती है। मुझसे वही सब काम करवाती है जो मैं आमतौर पर हर रोज़ करती हूँ।” 

संडे मतलब छुट्टी!

संडे मतलब काम पर ना जाने की आज़ादी। संडे मतलब सुबह देर तक सोने का मौका। हफ्ते में एक दिन का ‘कनफर्म्ड’ सुकून।

पर किसके लिए?

मेरे पतिदेव के लिए और ख़ासतौर पर मेरी दो बेटियों के लिए। बाकी रही मेरी बात तो शादी को चौदह साल हुए… लेकिन मेरा संडे कभी आया ही नहीं। ये खट्टी-मीठी टॉफ़ी जैसा संडे…दो-तीन घंटों की एक्स्ट्रा नींद के ‘बोनस’ का ऑफर लिए आ जाता है हर हफ्ते । जैसे कोई एहसान, कोई मेहरबानी करता हो मुझ पर।

जैसे किसी प्रतिस्पर्धा में मिलने वाला ‘सांत्वना’ पुरस्कार। भागती-दौड़ती ज़िन्दगी में एक छोटा सा सांत्वना। कैलेंडर की कुछ ख़ास तारीख़ों के अलावा मेरे हिस्से का साप्ताहिक अवकाश।

गृहणी होना सीमा पर तैनात सैनिकों की तरह होना ही तो है। निरन्तर चौकस और ड्यूटी देने जैसा। दिन की ‘अनिवार्य लिस्ट’ से किसी भी काम पर अंकुश नहीं लगाया जा सकता भले ही उसे डिले क्यों न कर दिया जाए।

जैसे सबकी होती है, मेरी भी एक पत्नी और माँ होने के नाते एक बंधी सी ‘दिनचर्या’ है। संडे के दिन घर में सब आराम से सो कर उठते हैं। दिन के बाकी काम देर से करें या ना भी करें, देर से खाएं, या देर से नहाएं, मेरे काम में ‘डिडक्शन’ की गुंजाईश नहीं रहती। ‘इन्क्रीमेंट’ का लिफ़ाफ़ा हमेशा रेडी रहता है। यानी मेरी दिनचर्या वैसे ही मुकम्मल रहती है। वैसे…..क्या कभी देखा है उत्तरी ध्रुव के ग्लेशिरों को पिघलते हुए?

खैर छोड़िये !

लेकिन जैसे बाकी सबकी दिनचर्या संडे को चैन की सांस लेती है, मेरी अकड़ कर सर पर सवार हो जाती है। मुझसे वही सब काम करवाती है जो मैं आमतौर पर हर रोज़ करती हूँ। निहायती ज़िद्दी और चिपकू सी है । मेरी एक नहीं सुनती। अपने काम का आर्डर भले ही बदल लेती है लेकिन कभी खत्म ही नहीं होती।

मेरे दिमाग में स्थाई रूप से सेट एक अलार्म की तरह। ना भी चाहूँ तो मेरे दिमाग की घंटी बजाकर बोल पड़ती है, “तो क्या हुआ आज अगर संडे है? उठना तो होगा। सुबह की चाय बनानी है, दूध से मलाई भी तुम्हें निकालनी है, दही भी तो तुम्हीं जमाओगी, नाश्ता तो तुम्हें ही बनाना है, परोसना भी है, बच्चों को तैयार भी करना है, उनके होमवर्क और स्कूल प्रोजेक्ट्स भी तुम्हें ही देखने हैं। अरे! कल डिक्टेशन है…वो भी तो तुम ही करवाओगी। दोपहर को भोजन भी तैयार करना है। रात का खाना भले बाहर होगा, किन्तु, अगले दिन टिफ़िन में क्या देना है…इस दुविधा से छुटकारा थोड़े ही मिल जाएगा। सोने से पहले स्कूल यूनिफॉर्म भी निकालकर रखनी है। रसोई में सुबह की थोड़ी बहुत तैयारी भी करनी होगी। हाँ, वैसे पति भी ‘वन्स इन आ वाईल’ वाला सपोर्टिंग रोले प्ले करेंगे। बहरहाल, इन सब के बीच में थोड़ा समय तुम्हें बाहर और घर के पेंडिंग कामों के लिए मिल ही जाएगा।

बड़ी क्रूर है मेरी ये दिन भर की अनिवार्य लिस्ट। छह बजे के अलार्म के ना बजने के अलावा संडे को भी सब कुछ, अक्सर वैसा ही घटित होता है। बस दिन की रफ़्तार कुछ और धीमी हो जाती है, थकी सी ज़िन्दगी…..थोड़ा और सुस्ता लेती है।

भई! किसी दिन कहीं गायब हो जाए या लंबी नींद सो जाए, कुछ दिन कोमा में ही चली जाए। कमबख्त! किसी ज़ालिम सास की तरह है। मुझे कभी समझती ही नहीं। मुझे भी तो हफ्ते भर की जद्दोजहद के बाद एक छुट्टी का अधिकार है। कभी मैं भी सोचती हूँ…….मुझे सुबह उठना ही ना पड़े। रसोई में मेरी एंट्री प्रोभिटेड हो। मुझे भी बिस्तर पर कोई सुबह की लाज़मी चाय सर्व कर दे, नाश्ते का झंझट ही ना हो। बच्चे खुद-ब-खुद अपने सारे काम कर लें, और अगले दिन की चिंता ना हो । मुझे भी सही मायनों में अवकाश मिले। हाँ, साल में एक दो ‘हॉलीडेज़’ ऐसी किसी मंशा के नज़दीक से होकर गुज़रते ज़रूर हैं….हल्का-फुल्का एहसास, लेकिन माँ और बीवी होने की मूल जिम्मेदारी के साथ। कुछ ऐसे …..जैसे चिरापुंजी की बेलगाम बारिश में कभी कभार निकलने वाली सुनहरी धूप।

मैं भी कहाँ पहुँच गई …..

बस ज़रा इस खूबसूरत ख्याल के हवाई किले क्या बनाए मैंने….झट से एक और काम याद आ जाता है, किसी कमरे से एक आवाज़ आ जाती है, एक और फरमाइश, एक और फ़र्ज़ और गुज़र जाती है एक और छुट्टी इसी हसरत में। ऐसा ही तो होता है अक्सर। अब ये ज़िद्दी और चिपकू दिनचर्या नियति सी बन गई है। हँसिये या रोइए, संडे है तो मंडे और ट्यूजडे जैसा  ही। ज़िन्दगी डिस्काउंट देती है पर अपनी शर्तों पर।

किसी की अर्धांगिनी होने का सुख, किसी की माँ होने का गौरव, और इन सब के बीच एक औरत होने की दुविधा और एक व्यक्ति विशिष्ट होते हुए एक दिन के आराम की अपेक्षा। कुछ ज़्यादा मांग लिए क्या ज़िन्दगी से मैंने? अरे! गलत मत समझिये। मैं कोई पीड़ित नहीं और ना ही फेमिनिस्ट होने की तमन्ना रखती हूँ। अपने दायरे में रहते हुए बस एक छोटी सी ख्वाहिश है जो उड़ान भरती तो है पर उसे वास्तविकता की ज़मीन पर आकर लैंडिंग करनी ही पड़ती है।

देखिए…..क्या पता शायद मेरा संडे भी कभी आ जाए!

मूल चित्र: Vector Illustration by Vecteezy

प्रथम प्रकाशित

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Nandita Sharma

I writer by 'will' , 'destiny' , 'genes', & 'profession' love to write as it is the perfect food for my soul's hunger pangs'. Writing since the age of seven, beginning with poetry, freelancing, scripting and read more...

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